ई-पुस्तकें >> भगवान श्रीकृष्ण की वाणी भगवान श्रीकृष्ण की वाणीस्वामी ब्रह्मस्थानन्द
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भगवान श्रीकृष्ण के वचन
¤ यदि तू परम कल्याण को पाना चाहता है, तो तुझमें मन की शान्ति होनी चाहिए। अत्यन्त प्रतिकूलताओं में भी अपने चित्त की समवृत्ति को बनाए रख।
¤ यदि दूसरे तेरा परिहास करे या तेरी निन्दा करें, तो भी अपनी शान्ति को विचलित न होने दे।
¤ कभी भी द्वेष के बदले द्वेष और हिंसा के बदले हिंसा न कर। अपने परम कल्याण को पाने के लिए तुझे पाप और अज्ञान से स्वयं को मुक्त करने की चेष्टा करनी चाहिए।
¤ अपने मन को इस संसार की वस्तुओं के पीछे न भटकने दे, क्योंकि वे स्वप्न के समान मिथ्या होती हैं। अपने मन को मुझमें समर्पित कर, मेरी शरण में आ और मुझ पर ध्यान कर।
¤ एकान्त में रुचि लेना सीख और सदैव जागरूक रहते हुए निरन्तर मेरा चिन्तन कर।
¤ हे भारत! जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब तब मैं अपने आप को प्रकट करता हूँ।
¤ साधु पुरुषों का परित्राण करने के लिए तथा दूषित कर्म करनेवालों का विनाश करने के लिए एवं धर्म की संस्थापना के लिए मैं युग युग में प्रकट होता हूँ।
¤ हे अर्जुन! जो पुरुष मेरे दिव्य जन्म और कर्म को तत्वत: जानता है, वह शरीर को त्यागकर पुन: जन्म ग्रहण नहीं करता, प्रत्युत वह मुझे ही प्राप्त करता है।
¤ हे पार्थ! जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं भी उन्हें वैसे ही भजता हूँ। मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग के अनुसार ही वर्तन करते हैं।
¤ गुण और कर्मों के विभाग से चार वर्ण मेरे द्वारा ही रचे गये हैं। यद्यपि मैं इसका कर्ता हूँ, तथापि तू मुझे अविनाशी और अकर्ता ही जान।
¤ हे परन्तप, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्तव्यों का निर्धारण उनके स्वभाव से उत्पन्न गुणों के आधार पर किया गया है।
¤ अपने अपने कर्म में लगा हुआ मनुष्य परमासिद्धि को प्राप्त करता है।
¤ जहाँ भी जो कोई भी वैभवपूर्ण, सुन्दर या शक्तिसम्पन्न दिखे, उसे मेरे तेज के अंश से उत्पन्न जान।
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