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भगवान श्रीकृष्ण की वाणी

स्वामी ब्रह्मस्थानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :74
मुखपृष्ठ :
पुस्तक क्रमांक : 9555
आईएसबीएन :9781613012901

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भगवान श्रीकृष्ण के वचन

भगवान् श्रीकृष्ण


कहा गया है कि अन्य अवतार तो भगवान् के कलावतार हैं, पर श्रीकृष्ण भगवान् के पूर्णावतार हैं ‘एते चांशकला पुसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ वे सभी अवतारों में सब से अधिक लोकप्रिय हैं तथा लोगों की श्रद्धा को सब से अधिक आकर्षित करते हैं। ऐसा कोई हिन्दू न होगा, जो उनका नाम न जानता हो।

श्रीकृष्ण वृष्णि-कुल में वसुदेव और देवकी के पुत्र के रूप में पैदा हुए थे। उनकी नसों में राजवंश का रक्त प्रवाहित हो रहा था। देवकी कंस की बहिन थी। कंस निर्दयता और दुष्टता का जीता-जागता विग्रह था। जब वह रथ में अपनी सद्य परिणीता बहिन और उसके पति को बिठाकर ले जा रहा था, तो उसने एक वाणी सुनी, ''अरे मूर्ख, इस दम्पति की आठवीं सन्तान तेरे लिए काल बनेगी।'' बस, त्योंही वह अपनी बहिन को मारने के लिए झपट पड़ा, पर वसुदेव ने उसे यह कहकर समझा-बुझाकर शान्त किया कि वे अपनी सभी सन्तानों को, जैसे जैसे उनका जन्म होगा, कंस को लाकर सौंप देंगे।

श्रीकृष्ण के जन्म के ठीक पूर्व वसुदेव और देवकी को कैद कर लिया गया और उन्हें बेड़ियों में अच्छी तरह जकड़ लिया गया। मुक्तिदाता भगवान् का जन्म मथुरा के कारागार में हुआ। भगवान विष्णु ही धरती को अधर्म और पाप के भार से मुक्त करने के लिए तथा साधकों को प्रकाश और मार्गदर्शन देने के लिए अवतीर्ण हुए। उनकी दैवी माया से प्रहरी निद्राग्रस्त हो गये, वसुदेव की बेड़ियाँ खुल गयीं और फाटक खुल गये तथा शिशु को यमुना के दूसरी ओर गोकुल में नन्द के यहाँ सुरक्षित रूप से पहुँचा दिया गया और उसके बदले उनकी नवजात कन्या को ले आया गया।

ज्योंही अत्याचारी कंस को देवकी की सन्तान के जन्म की खबर मिली, त्योंही वह अपने भावी वधकर्ता को अपने हाथों से मार डालने के लिए कारागार की ओर लपका, पर उसे यह देखकर अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि शिशु तो एक कन्या है। तथापि भविष्यवाणी का स्मरण कर उसने कन्या को हाथ में लेकर ज्योंही मारना चाहा, वह उसके हाथ से छूटकर ऊपर आकाश में चली गयी और बोली, ''जो तुझे मारेगा, वह तो गोकुल में पल रहा है।'' यह सुनकर कंस आपे से बाहर हो गया और उसने आदेश निकाला कि मथुरा और उसके आसपास के क्षेत्रों के सभी शिशुओं की हत्या कर दी जाए। पर जिनका जन्म अधर्म का नाश कर धर्म के संस्थापन के लिए हुआ था, वे सुरक्षित रहे और उन्होने कंस के उन्हें मारने के सारे प्रयासों को विफल कर दिया। अन्त मं् दुराचार और पाप की प्रतिमूर्ति कंस कृष्ण के द्वारा मारा गया और कंस के पिता उग्रसेन राजसिंहासन पर बैठे।

कृष्ण का शैशव चमत्कारों से भरा था। सामान्य जन के लिए तो वे अत्यन्त रहस्यमय थे, पर स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के लिए तो वह सब खेल था। एक दिन कृष्ण ने खेल खेल में कुछ मिट्टी खा ली। धात्री माता यशोदा ने मिट्टी निकालने के लिए उनका मुँह खुलवाया और उन्होंने अत्यन्त विस्मयविमूढ़ होकर देखा कि सारा ब्रह्माण्ड वहाँ विद्यमान है। वे इस अद्भुत दृश्य से आश्चर्यविजड़ित ही थीं कि कृष्ण हँसे और उन्होंने अपना सहज रूप धारण कर लिया। कृष्ण मथुरा से कुछ मील दूर स्थित वृन्दावन में चले आये जहाँ गोप-गोपियाँ उनके सहचर थे। गोपियों में मुख्य श्रीराधा थीं। कृष्ण के प्रेम में राधा अपनी सुध-बुध बिसार बैठी। हिन्दुओं के लिए राधा का तीव्र अनुराग अवर्णनीय दैवी सत्ता के प्रति मानवात्मा के उत्कट प्रेम का आदर्श है।'

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