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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘प्रत्येक पाँच प्राणियों में एक ऐसा अवश्य होगा जो इन कलाओं में रुचि लेता हो। हमारा जीवन तो भ्रमण, दृश्य-दर्शन, कला-कीर्तन, रसास्वादन और प्रेमालाप में व्यतीत होता है।’’

‘‘मैं इस वार्त्तालाप से मन में विचार कर रहा था कि कितना निष्प्रयोजन है इन लोगों का जीवन। यह जाति-की-जाति ही मृतप्रायः है। इनमें मानवता न्यूनातिन्यून मात्रा में है। मनुष्य की ऊपर उठने की भावना इनमें निःशेष हो गई है।’’

‘‘इसी समय नीलिमा ने मेरी ओर देखकर कहा, ‘आज आप हमारा आतिथ्य स्वीकार करें।’’

‘‘आतिथ्य तो यहाँ की व्यवस्था देखकर अर्थहीन प्रतीत होने लगा था। मैं विचार कर रहा था कि कदाचित् ये लोग अपनी संगत का आतिथ्य प्रस्तुत कर रहे हैं। इस कारण मैंने उनको कह दिया, ‘मैं सुरराज का अतिथि हूँ। मुझे उनके प्रासाद में ही ठहरने को स्थान मिला हुआ है।’’

‘‘तब तो ठीक है। वहाँ तो आतिथ्य के लिए मुझसे अच्छी, अधिक सुन्दर और वयस्क स्त्रियाँ मिलेंगी। तब तो आपको हमारा निमन्त्रण स्वीकार करने में कोई लाभ नहीं।’’

‘‘इस कथन से मुझे निमंत्रण का अभिप्राय स्पष्ट समझ में आने लगा था। भोजन, वस्त्र, निवास तो यहाँ अनायास ही मिलते हैं। अतएव अतिथि-सत्कार में इन वस्तुओं की कुछ महिमा नहीं थी। केवल प्रेमप्रलाप ही एक वस्तु रह गई थी जो देनी किसी के अधिकार में थी और कदाचित् वही, नीलिमा मुझे देने के लिए प्रस्तुत मुझे देने के लिए प्रस्तुत कर रही थी। मैं इस प्रकार के निमन्त्रण से बचना चाहता था। एक बार मैंने नीलिमा की आँखों में अपने अनुमान की यथार्थता का ज्ञान प्राप्त करना चाहा। वह मेरी ओर देखकर मुस्करा रही थी। मैंने पूछ लिया, ‘क्या आप समझती है कि आपसे भी अधिक सुन्दर स्त्रियाँ देवलोक में है?’ यह प्रश्न मैंने इस धारणा के आधार पर पूछा था कि स्त्रियाँ अपने सौन्दर्य की प्रशंसा सुनने के लिए लालायित रहती हैं। मेरी यह धारणा साहित्य पढ़ने से बनी थी। मैं देखना चाहता था कि इस देश में, जहाँ हमारे देश में सर्वथा भिन्न प्रकार की संस्कृति का प्रचलन है, क्या मानव-स्वभाव भी भिन्न है?’’

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