उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
|
137 पाठक हैं |
हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘नहीं महाराज! यह नीति उचित नहीं है। इस ओर तो ऐसी प्रवंचनापूर्ण नीति है। जब कामभोज को स्वतन्त्र किया गया था तो कामभोजाधिपति ने महाराज शान्तनु को वचन दिया था कि वह उसका मित्र रहेगा। इस सन्धि से वचन भंग हुआ है। इसके अतिरिक्त भी इस प्रकार की सन्धि गुप्त रहनी चाहिए। यह गुप्त नहीं रही। अतः इससे न तो धर्म की रक्षा हुई न देश की।’’
‘‘अच्छा संजय! यह बताओ कि हस्तिनापुर और गांधार राज्य में जो युद्ध हो रहा है, क्या उसे धर्मयुद्ध कह सकते हैं?’’
‘‘एक विचार से तो यह धर्मयुद्ध ही है। हस्तिनापुर राज्य तो अपनी प्रजा की रक्षा के लिए ही यह युद्ध कर रहा है। इससे यह धर्म-युद्ध ही है।’’
‘‘मैंने यह नहीं पूछा। मेरा कहने का आशय यह है कि युद्ध में आक्रमण हुआ है। सेनाएँ लड़ रही है, परन्तु साथ ही प्रजा को भी लूटा जा रहा है, अर्थात् गांधार वाले इस युद्ध को धर्म की सीमाओं में नहीं रख रहे। यह ठीक है क्या?’’
‘‘गांधार वालों ने युद्घ के वे नियम, जो देवताओं, आर्यों और अन्य धर्मानुयायियों ने स्वीकार किये हैं, अभी तक मानने उचित नहीं समझे। सुमेरु पर्वत से पश्चिम की ओर जितने भी राज्य है, वे युद्ध के इस नियम को कि सेनाएँ ही एक स्थान पर एकत्र होकर लड़े, नहीं मानते।’’
‘‘उनको समझाया जाये तो वे मान लेंगे क्या?’’
‘‘एक बात तो वे मान लेंगे। सेना की अपेक्षा वे राजाओं में परस्पर द्वन्द्व-युद्ध करना स्वीकार कर लेंगे।’’
‘‘क्या यह ठीक उपाय नहीं है, तुम्हारी दृष्टि में?’’
‘‘नहीं महाराज! यह उपाय ठीक नहीं है। धर्माधर्म और उचितानुचित तथा हिताहित का निर्णय द्वन्द्व-युद्ध से नहीं हो सकता।’’
|