उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘यह युद्ध क्यों हो रहा है?’’
‘‘ब्रह्मदेश पर ययाति के काल से चन्द्रवंशियों का राज्य चल रहा है। वे तब से ही प्रयागराज से लेकर कामभोज तक का राज्य भोग रहे हैं। शान्तनु के काल से कामभोज स्वतन्त्र हो गया है। उसके स्वतन्त्र होने से गांधारों ने कामभोज के राजा से संन्धि कर ली है। उनकी सन्धि में यह निश्चय किया गया है कि यदि गांधर्वगण ब्रह्मदेश को विजय कर लेंगे तो वे एक क्षण स्वर्ण प्रतिवर्ष काम भोज को देंगे। यह इसलिए कि कामभोजाधिपति गांधार पर, जब से लोग ब्रह्मदेश पर आक्रमण करें, पीछे से आक्रमण न कर दें।’’
‘‘यह तो बहुत ही अच्छी सन्धि है।’’
‘‘हाँ, परन्तु श्रीमान्! सन्धि का प्रयोजन तो ठीक नहीं है। इसमें दुष्टता निहित है। इस कारण यह सन्धि ब्रह्मदेश के विजय होते ही टूट जायेगी और कामभोज को कुछ नहीं मिलेगा।’’
‘‘परन्तु क्या तुम समझते हो कि गांधार के लोग ब्रह्मदेश पर विजय प्राप्त कर सकेंगे?’’
‘‘इस समय घोर युद्ध हो रहा है। इस पर भी एक ओर तो गांधार अपनी पूर्ण शक्ति से लड़ रहा है और दूसरी ओर शक्ति का एक अंश मात्र ही प्रयोग में लाया जा रहा है। इसका अर्थ मैं यह लगाता हूँ कि जब गांधार अति दुर्बल हो जायेगा, तब हस्तिनापुर एक ही आक्रमण में गांधार का सर्वनाश कर इसको अपने अधीन कर लेगा।’’
‘‘तो इसका यह अर्थ हुआ कि कामभोज की नीति श्रेष्ठ है। गांधार की विजय तो होगी नहीं, इस कारण कामभोज दोनों पक्षों से तटस्थ समझा जायेगा।’’
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