लोगों की राय

उपन्यास >> अवतरण

अवतरण

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

137 पाठक हैं

हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


एवमस्त्विति तां राजा प्रत्युवाचाविचारयन। आदिपर्व, ७३-१८

तां देवीं पुनरुत्थाप्य मा शुचेति पुनः पुनः।
शपेयं सुकृतेनैव प्रापयिष्ये नृपात्मेज। आदिपर्व, ७३-२१ (४)

‘‘शकुन्तला के पुत्र का नाम सर्वदमन रखा गया। यह बालक बारह वर्ष की अवस्था में ही पूर्ण विद्वान और अस्त्र-शस्त्र विद्या का ज्ञाता हो गया। इस पूर्ण अवधि में न तो दुष्यन्त का कोई दूत आया और न वह स्वयं ही। अब विवश होकर कण्व ऋषि ने शकुन्तला तथा उसके पुत्र को आश्रम के कुछ अन्य निवासियों के साथ दुष्यन्त की नगरी में भेज दिया।
‘‘नगरी में पहुँच शकुन्तला राजा के सामने उपस्थित हुई। उसने अपना परिचय दिया। उसने कहा, ‘राजन्! यह आपका पुत्र है, इसे आप अपने वचनानुसार युवराज पद पर अभिषिक्त कीजिए। यह आपके द्वारा मेरे गर्भ से उत्पन्न हुआ है।’’

‘‘राजा दुष्यन्त ने शकुन्तला की बात सुनकर कहा, ‘हे दुष्ट तपस्विनी! मैं तुमको नहीं जानता। मुझको कुछ भी स्मरण नहीं कि तुम किसकी स्त्री हो? मुझको स्मरण नहीं कि धर्म, काम अथवा अर्थ के निमित्त मैंने तुमसे कभी सम्बन्ध स्थापित किया हो। इस कारण यहाँ से चली जाओ।’’
१. धर्मकामार्थसम्बन्धं न स्मरामि त्वसा सह। आदिपर्व, ७४-२0

इस समय हम खाना खा चुके थे। गाड़ी खड़ी हुई और हम अपने कम्पार्टमेंट में आ गए। वहाँ पहुँच मैंने पूछ लिया, ‘‘माणिकलालजी! इस प्रकार की कथा सुनाकर आप मुझे लज्जित कर रहे है। एक प्रकार तो आपको मुझका युधिष्ठिर का अवतार बताना और दूसरी ओर युधिष्ठिर के पूर्वजों को ऐसा नीच प्रकट करना, मुझको नीच बनाने के सदृश ही है।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book