उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘एक मार्ग और भी हो सकता है। अपने सैनिकों को एक भारी संख्या में गुप्त रूप से यहाँ भेजा जाये। वे यहाँ रहने का स्वतन्त्र प्रबन्ध करें। यहाँ के निवासियों की लड़कियों से विवाह करें। और अपनी सन्तान उत्पन्न करें। वह सन्तान यहाँ की नागरिक होगी और विचार तथा शिक्षा-दीक्षा से भारतीय होगी। यह तीस वर्षों में सम्भव हो सकेगा। तत्पश्चात् यहाँ की प्रजा की ओर से विद्रोह खड़ा कर दिया जाये और इस विद्रोह का समर्थन करने के लिए बाहर से सहायता भेजी जाये। धन, जन और युक्ति से कार्य करने पर यह राज्य अपना सहायक हो सकता है।’’
पत्र उसी झाड़ी में रख दिया गया, जिसमें वह सुभट्ट कह गया था। कुछ ही काल पश्चात् वह पत्र वहाँ से उठा लिया गया। उसी दिन मैं कश्मीर के देवता आयुक्तक से मिलने गया। बहुत प्रतीक्षा के पश्चात् मुझको भेंट की स्वीकृति मिली और अपनी बात मनाने में सफलता तो कई दिन की प्रेरणा के पश्चात् मिली।
मैं यह चाहता था कि सुरराज को मेरा पत्र भेजने का प्रबन्ध कर दिया जाये। आयुक्तक उस पत्र को पढ़े बिना भेजने के लिए तैयार नहीं होता था। मैं नहीं चाहता था कि सुरराज देवेन्द्र के अतिरिक्त कोई उस पत्र को पढ़े। जब कई दिन की बातचीत के पश्चात् भी आयुक्तक इस बात के लिए तैयार नहीं हुआ तो मैंने सोमभद्रजी से कहकर एक सेवक इस काम के लिए तैयार कर लिया, जो मेरा पत्र ले जा सके।
इस सेवक को भेजने का पूर्ण प्रबन्ध हो गया था कि एक दिन आयुक्तक की मुझे उसके सम्मुख उपस्थित होने की आज्ञा हो गई। मैं वहाँ गया तो आयुक्तक का व्यवहार परिवर्तित पाया। जहाँ पहले ऐसे अवसरों पर मुझको उसके सम्मुख खड़े-खड़े बातचीत करनी पड़ती थी, वहाँ उस दिन उसने मुझे अपने समीप बराबर का आसन दिया। मैं बैठ तो गया, परन्तु मेरे मन में इस परिवर्तन पर विस्मय बना रहा।
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