उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मार्ग इतना सरल नहीं था, जितना कि लामा के कथन से प्रतीत होता था। स्टीमर से रेल, रेल से पुनः स्टीमर और फिर रेल पर सवार हो हम कैलिम्पौंग जा पहुँचे। वहाँ हम एक बौद्ध-विहार में चले गये। यह विहार तिब्बतियों का था। उनके द्वारा ही इसका संचालन होता था। छोटे लामा ने जब तिब्बती भाषा में अपना परिचय दिया तो हमको एक कमरा दे दिया गया।’’
‘‘उस दिन से मैं तिब्बत के दानी बौद्ध उपासकों के आश्रय पर यात्रा करने लगा। मुझको भी उन लोगों जैसे ही कपड़े पहना दिये गए। कैलिम्पौंग से कुछ मील हटकर हम घाटी में उतर आये। यहाँ से एक नाम-मात्र की पगडण्डी पर चलते हुए भारत की सीमा पार कर गए। इस मार्ग पर चलते हुए हमें एक लाठी की सहायता की आवश्यकता पड़ती थी। इसके अतिरिक्त कुछ भी उठाकर चलना सम्भव नहीं था। मार्ग अति ढालू तथा संकीर्ण था।’’
‘‘मेरे साथी लामा सीमा-पार का मार्ग भली-भाँति जानते थे। हम लामाओं के वस्त्र पहनकर प्रत्येक ग्राम अथवा खानाबदोश गूजर-ग्वालों के गोल में पहुँचते तो हमारा बड़ा मान होता। हमको भोजन मिलता और रात्रि के निवास के लिए स्थान भी। घरों में अथवा ‘याक’ की खाल से बने खेमों में हम रात व्यतीत करते थे। नदी-नाले के आने पर लोग हमको नाव में बैठाकर अथवा अपने कन्धे पर चढ़ाकर पार ले जाते थे।’’
‘‘भारत की सीमा पार करने पर हमारे लामाओं के वस्त्र हमारे लिए सुख-सुविधा के साधन उत्पन्न करने में सहायक सिद्ध हुए। ढाई मास की यात्रा के पश्चात् हम ल्हासा जा पहुँचे। वहाँ हम लोग एक सप्ताह तक नगर के बाहर जाने में अनेक प्रतिबन्ध थे, वहाँ हमारे पहनावे के कारण हमें कोई नहीं रोकता था।’’
‘‘मेरे साथी लामा तो शीघ्र ही ल्हासा से चल देना चाहते थे, किन्तु मैं ढाई मास की पैदल यात्रा से थककर चूर हो गया था। इस कारण हम वहाँ एक सप्ताह तक ठहरे। उसके बाद पन्द्रह दिन और चलने पर हम लामाओं के गुरु योगिराज विश्वेश्वर के विहार में जा पहुँचे।’’
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