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गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :590
मुखपृष्ठ : Ebook
पुस्तक क्रमांक : 9552
आईएसबीएन :9781613010389

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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।


‘‘अपने मन की बात उसके मुख से सुनकर मुझे विस्मय हुआ। यह टिकट के लिए पैसे माँगने वाली बात तो प्रातःकाल ही मेरे मन में आई थी। किन्तु इस लामा को वह भी विदित हो गई थी। मैं समझता था कि यह सूझ-बूझ अनुभव से भी उत्पन्न हो सकती है। इस पर भी वह अत्यन्त ही विस्मयकारक थी। इसने मेरे मन के उखड़े सन्तुलन को उलट दिया। मैं उसके साथ चलने के लिए तैयार हो गया। मेरे मन में उसके अनुभव की गहराइयों को और भी अधिक जानने की लालसा जाग पड़ी। मैंने कहा, ‘‘परन्तु मैं तो किसी को कहकर नहीं आया।’’

‘‘इसकी क्या आवश्यकता है? कोई किसी के लिए चिन्ता नहीं करता। तुम तो तिब्बत जा रहे हो। लोग तो मरने वालों के विषय में भी भूल जाते हैं।’’

‘‘मेरा बैंक में कई हज़ार रुपया रखा हुआ है।’’

‘‘पुँगी में चलकर बैंक वालों को लिख देंगे।’’

‘‘और कपड़े?’

‘‘मैं सब प्रबन्ध कर दूँगा।’’

‘‘इस आश्वासन से मुझको सन्तोष हुआ। मैं उसके साथ स्टीमर पर चढ़ गया। फर्स्ट क्लास के एक केबिन में दूसरे लामा ने तीन बर्थो पर अधिकार कर लिया था। उसमें एक बर्थ और था, जो अभी तक खाली पड़ा था।’’

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