उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
राजकुमार देवव्रत अपने पूर्वजों के दोषों की गणना सुनकर क्रोध से लाल हो गये। राजमाता ने उनके मुख पर रोष देख बात शान्त करते हुए कहा, ‘‘संजय ‘! तुमने हमारे पूर्वजों के दोषों का वर्णन तो किया परन्तु उनके गुणों को भूल गये हो।’’
‘‘नहीं माताजी! मैं भूला नहीं हूँ, परन्तु इस समय तो विवाह,नियोग और सन्तानोत्पत्ति की बात हो रही है। न कि दोष अथवा गुणों की। मैंने तो केवल वस्तुस्थिति का वर्णन किया है।’’
‘‘देखो, मैंने इन पुत्रवधुओं को मना लिया है। ये सन्तान के लिए नियोग की इच्छा करती हैं। इस समय तुम युवा हो, अविवाहित तथा सुन्दर हो। तुम हमारे घर के अन्तरंग व्यक्ति भी हो। अतः तुमसे ये दोनों सन्तान के लिए याचना करती हैं।’’
‘‘परन्तु माताजी! मैं आपके वंश में से नहीं हूँ। अतः मुझसे सन्तान पाने पर भी आपका वंश नहीं चलेगा। इनको सन्तान मिलेगी, परन्तु वंश मेरा होगा। धर्म-शास्त्र में भी लिखा है कि भूमि, जैसा बीज हो, वैसा ही वृक्ष अथवा भीज उत्पन्न करती है।१ तो माताजी! यदि सूत की सन्तान को राज्य देना है तो बात दूसरी है, अन्यथा मैं आपके परिवार की वृद्धि में योग देने के अयोग्य हूँ।’’
इस धर्म-शास्त्र की व्यवस्था को सुन एक क्षण तक राजमाता चुप हो रहीं। पुनः कहने लगी, ‘‘मैं अपनी सन्तान का राज्य किसी दूसरों की सन्तान के हाथ में नहीं जाने दूँगी।’’
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