उपन्यास >> अवतरण अवतरणगुरुदत्त
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हिन्दुओं में यह किंवदंति है कि यदि महाभारत की कथा की जायें तो कथा समाप्त होने से पूर्व ही सुनने वालों में लाठी चल जाती है।
‘‘मैंने निवेदन किया, ‘महाराज! किस प्रकार आप द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अवलम्बन हो सकेगा, कुछ विस्तार से समझा दीजिए, जिससे भूल न हो जाये।’’
‘‘ऐसा करो, तुम देवव्रत से जाकर मिलो और उससे कहना कि वह अपनी भीष्म-प्रतिज्ञा से विचलित न हो। देवव्रत की इस भीष्म-प्रतिज्ञा की इतनी महिमा गाओ कि वह इस पर डटा रहना अपने मान का प्रश्न समझने लगे।’’
‘‘हमारी योजना है कि सत्यवती की सन्तान हस्तिनापुर के राज्य पर बैठ जाये। यदि देवव्रत ने राज्य-कार्य सम्भाल लिया तो वह वंश नाश होने से बच भी सकता है। तब यह यक्ष्मा के रोगी के समान देश में विष फैलाता रहेगा। इससे जहाँ भारत देश में घोर पतन होगा, वहाँ हमारे देवलोक को भी दुष्टों के आक्रमण का भय उत्पन्न हो जायेगा।
‘‘देखो संजय! हम तुमसे बहुत प्रसन्न हैँ। तुमने मेनका से संबन्ध न बनाकर तथा उससे अथवा अन्य देवांगनाओं से निर्लिप्त रहकर अपनी श्रेष्ठ शिक्षा-दीक्षा का प्रमाण दे दिया है। इससे हम समझते हैं कि तुम्हारा इस कार्य पर जाना ठीक रहेगा। बताओ, कब तक जाना चाहते हो?’’
‘‘जब श्रीमान् आज्ञा दे दें।’’
‘‘अच्छी बात है, दो दिन में यहाँ से जाना होगा। स्वर्ग तुम्हारे पिताजी के आश्रम में पहुँच जायेगा। इसके अतिरिक्त एक सौ स्वर्ण मार्ग-व्यय के लिए तुमको यहाँ से मिल जायेगा। यदि किसी देवांगना पर मन रीझ गया तो बताओ, वह तुम्हें उपहार में मिल सकती है।’’
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