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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

अक्सर तो उलटा हुआ है, भीड़ गलत साबित हुई है। इकहरे, इक्के-दुक्के व्यक्ति सही साबित हुए हैं। अगर भीड़ ही सही होती तो दुनिया बहुत दूसरी होनी चाहिए थी। दुनिया एकदम गलत है, भीड़ गलत होगी। कभी इक्का-दुक्का आदमी तो सही हुआ है, लेकिन भीड़ सही नही़ हुई है। लेकिन भीड़ को एक सुविधा है यह भ्रम पाल लेने की, पोस लेने की, कि सभी लोग साथ हैं। जहाँ बहुत लोग साथ हैं, वहाँ सत्य होगा ही।

सत्य के लिए ऐसी कोई गारंटी और कसौटी नहीं है। बल्कि सच्चाई तो यह है कि सत्य की शुरुआत ही नहीं हो पाती इस विश्वास के कारण कि दूसरे लोग बहुत होने की वजह से सही होंगे और मैं अकेला होने की वजह से कहीं गलत न हो जाऊं।

ज्ञान मुझे खोजना है, सत्य मुझे पाना है, जीवन मुझे जीना है, और मुझे स्वयं पर कोई विश्वास नहीं है। भीड़ पर, अन्यों पर विश्वास है। तो फिर यह यात्रा कैसे हो सकती है, मुझे होना चाहिए स्वयं पर विश्वास। है मुझे अन्य पर, भीड़ पर विश्वास। भीड़ जो कह देती है, उसी को मैं मान लेता हूँ। भीड अगर हिंदुओ की है, तो मैं एक बात मान लेता हूँ। भीड जैनियों की है, दूसरी बात मान लेता हूँ। भीड़ कम्युनिस्टों की है, तीसरी बात मान लेता हूँ। भीड आस्तिकों की है चौथी नास्तिकों की है पांचवी। भीड़ जो कहती है, वह मैं मान लेता हूँ। भीड़ मेरे प्राणों को जकड़े हुए है।

यह जो कलेक्टिव माइंड है, यह जो समूह का मन है, यह व्यक्ति के मन को सत्य तक नहीं पहुंचने देता है। तो कलेक्टिव माइंड, यह समूह का जो मन है, हजारों-हजारों साल में जो निर्मित होता है, यह जो बासा मन है, यह हमें जकड़े हुए है। और आप जब तक इस कलेक्टिव माइंड, इस सामूहिक मन के घेरे में बंद हैं, तब तक आप भूल में हैं कि आप एक व्यक्ति हैं, आप एक इंडीवीजुअल हैं।

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