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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

और मैं मुक्त भी हो गया--तुम्हारे पिंजड़े के बाहर हो गया। अब तुम भी ऐसा ही करो, तो तुम्हारी आत्मा भी मुक्त हो सकती है।

तो अंत में मैं यही कहना चाहूँगा ऐसे जिएं जैसे हैं ही नहीं। हवाओं की तरह, पत्तों की तरह, पानी की तरह, बादलों की तरह। जैसे हमारा कोई होना नहीं है। जैसे मैं नहीं हूँ। जितनी गहराई में ऐसा जीवन प्रगट होगा, उतनी ही गहराई में मुक्ति निकट आ जाती है। इन तीन दिनों में इस तरह ही जी सकें। उसी के लिए मैंने सारी बातें कही हैं। इस तरह जिएं, जैसे नहीं है। बस, साधना का इससे ज्यादा गहरा कोई और सूत्र नहीं है।

अब हम रात्रि के ध्यान के लिए बैठेंगे और फिर विदा होंगे। यह अंतिम रात्रि है, इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें। इसलिए बहुत शांति से ध्यान में जाने का प्रयोग करें।

सब लोग थोड़े दूर चले जाएं। अपनी-अपनी जगह रुक जाए, जो जहाँ है। कोई किसी तरह की बातचीत नहीं करेगा। जो लोग खड़े है या बैठे हैं, वे सबका ध्यान रखेंगे--थोड़ी भी गड़बड़ न हो।

शांति से लेट जाएं। सारे शरीर को बिलकुल ढीला छोड़ दें। वैसे ही जैसा अभी मैंने कहा, जैसे आप हो ही नहीं। बिलकुल ढीला छोड़ दें। जैसे कोई जीवन भी नहीं है। बिलकुल शिथिल छोड़ दें।

शरीर शिथिल हो रहा है, छोड़ दें। आँख आहिस्ता से बंद कर लें। शरीर शिथिल हो रहा है, अनुभव करें। शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है शरीर शिथिल हो रहा है। शरीर बिलकुल शिथिल हो गया है। छोड़ दें। शरीर शिथिल हो गया है।

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