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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

तब मैं डर गया और मैंने सांकल आहिस्ता से छोड़ी कि कहीं वह सुन ही न ले। और मैंने जूते पैर से बाहर निकाल लिए कि सीढ़ियां उतरते वक्त आवाज न हो जाए--कहीं वह आ ही न जाए। और मैं भागा उसके द्वार से। जब मैं बहुत दूर निकल आया, तब मैं ठहरा, तब मैंने संतोष की सांस ली और तब से मैं फिर उसका मकान खोज रहा हूँ। क्योंकि खोजने में जिंदगी चलाने का एक बहाना है। मुझे भलीभांति पता है कि उसका मकान कहाँ है उसको बचकर निकल जाता हूँ। खोज जारी रखता हूँ। जो भी मिलता है, उससे पूछता हूँ, ईश्वर कहाँ है? ऐसे जिदगी मजे में कट रही है। एक ही डर लगता है, कहीं किसी दिन उससे मिलना न हो जाए। मकान उसका मुझे पता है।

बड़ी अजीब सी बात है। लेकिन हम सबके साथ ऐसा ही है। हम सबको पता है कि उसका मकान कहाँ है। हम सबको मालूम है कि थोड़ा खटकाया और द्वार खुल जाएंगे। लेकिन कोई तैयार है किसी का मन राजी है?

समझ लें आप उसके द्वार पर खड़े हो गए हैं जाकर और खटकाने की बात है। जैसा क्राइस्ट ने कहा, नॉक, एंड द डोर शेल बी थ्रोन ओपन अन टू यू, खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। द्वार पर ही आप खड़े हैं, खटखटाने की बात है। होता है मन कि खोल लें द्वार, या कि मन डरता है या कि मन कहता है चलो, वापस लौट चलें? खोज बड़ी अच्छी थी, मिल जाने पर बड़ी मुश्किल होगी, फिर क्या करेंगे?

मैं निश्वित आपसे कहता हूँ आप भी द्वार से वापस लौट आएंगे। या कौन जाने लौट आए हों। रोज लौट आते हों। परमात्मा का मकान बहुत दूर तो नहीं हो सकता। है तो कहीं बिलकुल निकट, पास--सब तरफ। उसका द्वार कहीं किसी आकाश में, किसी सितारे के पास तो नहीं हो सकता। है तो हर जगह। उसके रास्ते कहीं बहुत दुर्गम तो नहीं हो सकते। सब रास्ते उसी के हैं। जहाँ से भी हम चलें, उसी तक पहुँचेंगे, उसके अतिरिक्त कुछ है नहीं।

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