ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
रवींद्रनाथ ने एक अदभुत गीत लिखा है। लिखा है कि मैं ईश्वर को खोजता था बहुत-बहुत जन्मों से। अनेक बार दूर किसी पथ पर उसकी झलक दिखाई पड़ी, मैं भागा, भागा, लेकिन तब तक वह निकल गया और दूर। मेरी सीमा थी, उस असीम की, सत्य की कोई सीमा नहीं। जन्म-जन्म भटकता रहा, कभी कोई झलक मिलती थी किसी तारे के पास। भागता जब मैं उस तारे के पास पहुँचता, तब वह फिर कहीं और निकल गया था। आखिर बहुत थका, बहुत परेशान, बहुत प्यासा, एक दिन मैं उसके द्वार पर पहुँच गया। मैं उसकी सीढ़ियां चढ़ गया। परमात्मा के भवन की सीढ़ियां मैंने पार कर लीं। मैं उसके द्वार पर खड़ा हो गया। मैंने सांकल हाथ में ले ली। बजाने को ही था, तभी मुझे खयाल आया, अगर वह कहीं मिल ही गया तो फिर क्या होगा? फिर मैं क्या करूंगा? अब तक तो एक बहाना था चलाने का कि ईश्वर को खोजता हूँ। फिर तो यह बहाना भी नहीं रह जाएगा। द्वार पर खड़े होकर घबड़ाया मन कि द्वार खटकाऊं या न खटकाऊं। क्योंकि खटकाने के बाद उससे मिलना निश्वित है। यह उसका भवन आ गया। और वह मिल जाएगा फिर मैं उससे मिलना भी चाहता हूँ या कि केवल एक बहाना था अपने को चलाए रखने का। अपने समय को काटने का एक बहाना था। अपने को व्यर्थ न मानने की, सार्थक बनाने की एक कल्पना थी।
चाहता हूँ मैं उसे?
और तब मन बहुत घबड़ाया और उसने कहा कि नहीं, दरवाजा मत खटखटाओ। अगर कहीं वह मिल गया तो फिर बड़ी मुश्किल है। फिर क्या करोगे? फिर सब करना गया। फिर सब खोज गई, फिर सब दौड़ गई। फिर सारा जीवन गया।
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