ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
वह व्यक्ति मंदिर गया। लेकिन वह जाना अंतिम था। मंदिर में वह आँख बंद करके खड़ा हुआ, और श्वास समाप्त हो गई। उसका पिता रोने लगा। उसके पिता ने कहा, बहुत बार मैं मंदिर गया लेकिन आज तक मैं मंदिर नहीं पहुँच पाया। और यह मेरा लड़का आज मंदिर गया और पहुँच भी गया।
प्राण अगर पूरी प्यास से--प्राण अगर पूरी प्यास से, प्राण का कण-कण अगर पूरी प्यास से भरकर एक क्षण भी ठहर जाए, तो परमात्मा से मिलन सुनिश्चित है, सत्य से मिलन सुनिश्चित है। लेकिन बिना प्यास के हम भटकते रहते हैं, भटकते रहते हैं। और पूछते रहते हैं, कैसे होगा, कब होगा, क्या होगा। कभी नहीं होगा, ऐसे कभी नहीं होगा। होने के लिए चाहिए एक त्वरा, एक पैशन--इसी क्षण हो सकता है।
उचित है कि इस अंतिम दिन इसको हम ठीक से समझ लें। तो खोज लें अपने भीतर कि कोई प्यास है। न हो प्यास तो फिजूल क्यों? इन सब बातों में समय को गंवाना। न हो प्यास तो ठीक है। जिस बात की प्यास हो, उसी तरफ जाए। ईमानदार तो होए अपनी प्यास में कम से कम। कम से कम एक ईमानदारी तो होनी चाहिए। जो मेरी प्यास नहीं है, उस तरफ नहीं जाऊंगा। जिस तरफ मेरी प्यास है, उसी तरफ जाऊंगा। चाहे दुनियां कुछ भी कहे।
अगर इतनी ईमानदारी हो तो एक दिन सारी प्यास व्यर्थ हो जाती है, सिर्फ परमात्मा की प्यास ही फिर शेष रह जाती है। और तब एक बल के साथ, एक त्वरा के साथ, एक गति के साथ सारा जीवन परमात्मा के सागर की तरफ दौड़ने लगता है। जैसे नदियां सागर की तरफ दौड़ती, पहाड़ों को छलांगती, मैदानों को पार करती, पत्थरों को तोड़ती--किसी दूर अनंत सागर की यात्रा करती रहती है, वैसे ही।
लेकिन अगर हम जीवनभर ऐसी प्यासों के पीछे भी दौड़ते रहे, जिनकी हमें कोई प्यास ही नहीं है तो हमारा मन अगर बोथला हो जाए, कुंठित हो जाए, अगर सारी गति अवरुद्ध हो जाए तो आश्वर्य नहीं है। तो मनुष्य को खोजना चाहिए--मेरी खोज क्या है, मेरी सर्च क्या है, क्या खोजना चाहता हूँ?
|