ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक बहुत बड़ा वैयाकरण था। बहुत बड़ा व्याकरण का विद्वान था। उसका पिता दिन-रात, राम-राम, राम-राम जपा करता था हर समय। विद्वान की उम्र साठ वर्ष हो गई, पिता की कोई अस्सी के करीब होगी। उसके पिता ने एक दिन उसको बुलाकर कहा कि बेटे अब तुम भी बूढ़े हो गए। अब राम के स्मरण का समय आ गया। मैंने तुम्हें कभी मंदिर जाते नहीं देखा। मैंने कभी तुम्हें धर्म की बात करते नहीं देखा। मैंने कभी तुम्हारी इस तरफ, परमात्मा की तरफ उत्सुकता नहीं देखी। अब कब तक? बूढ़े हो गए हो तुम भी, साठ वर्ष पार हो गए तुम्हारे भी। कब तक? उस बेटे ने कहा, मैं भी आपको देखता हूँ वर्षों से राम-राम जपते, मंदिर जाते--रोज वही करते। जो कल भी किया था, आज भी आप करते हैं। लेकिन कल जब उस करने से कुछ उपलब्ध नहीं हुआ, तो आज कैसे उपलब्ध हो जाएगा तीस वर्षों से मैं भी देखता हूँ। तीस वर्षों में रोज मंदिर जाते देखा, ग्रंथ पढ़ते देखा, राम-राम जपते देखा। अगर तीस वर्षों में कुछ नहीं हुआ वही करते हुए, तो आज उसके करने से और क्या हो जाएगा? उस युवक ने कहा, किसी दिन मैं मदिर जाऊंगा। लेकिन जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह मेरा मंदिर जाना अंतिम होगा। दो कारणों से। या तो मंदिर से मैं लौटूगा ही नहीं। और या लौट आया तो फिर मदिर नहीं जाऊंगा। वह अंतिम और प्रथम मंदिर मेरा जाना होगा।
बाप नब्बे वर्ष का हो गया। लड़का सत्तर वर्ष पार कर गया। सत्तरवी वर्षगांठ थी उसकी। उस दिन सुबह ही उसने अपने पिता के पैर छुए और कहा, मैं मंदिर जाता हूँ। सारे गांव के लोग इकट्ठे हो गए, यह खबर सुनकर कि वह आदमी जो कभी मंदिर के पास नहीं फटका, आज मंदिर जा रहा है। सारा गांव इकट्ठा हो गया।
|