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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

आपकी रफ्तार पर निर्भर है। आप कैसी तीव्रता से, कितनी गंभीरता से, कितनी सिनसेरिटि से, कितनी ईमानदारी से जीवन को बदलने की आकांक्षा से अभिप्रेरित हुए हैं, इस पर निर्भर है। एक क्षण में भी यह हो सकता है। एक जन्म में भी न हो। समय का कोई भी सवाल नहीं है। समय का रत्तीभर भी सवाल नहीं है। क्योंकि ध्यान में समय के द्वारा हम नहीं जाते हैं। ध्यान में हम जाते हैं अपनी प्यास और तीव्रता के द्वारा।

भीतर कोई टाइम नहीं है, भीतर कोई समय नहीं है। सब समय बाहर है। तो अगर बाहर यात्रा करनी हो, तब तो समय निश्वित लगता है। लेकिन भीतर यात्रा करनी हो, प्यास अगर परिपूर्ण हो, तो समय लगता ही नहीं। बिना समय के एक पल में, एक पल में भी नहीं--भीतर पहुँचा जा सकता है। लेकिन वह निर्भर करेगा--मुझ पर नहीं, आप पर।

और यह जरूर कहूँगा, हमारी गंभीरता, हमारी प्यास अत्यल्प है। अगर अत्यल्प न होती, अगर बहुत कम न होती, तो हम शब्दों और शास्त्रों से तृप्त न हो जाते।

एक आदमी को प्यास लगी है, क्या हम पानी के संबंध में लिखी हुई उसे कोई किताब दें, वह तृप्त हो जाएगा उस किताब को रोज पढ़ता रहेगा, किताब फेंक देगा। वह कहेगा, किताब का मैं क्या करूंगा। मुझे प्यास लगी है, मुझे पानी चाहिए। पानी के ऊपर लिखा हुआ शास्त्र नहीं।

लेकिन मैं तो देखता हूँ परमात्मा के ऊपर लिखे शास्त्रों को लिए लोग बैठे हैं। वे कोई भी नहीं कहते कि हमें किताब नहीं चाहिए, हमें परमात्मा चाहिए। हमें प्यास लगी है, यह वे कोई भी नहीं कहते। रखे बैठे रहें वे शास्त्र को। उनके भीतर प्यास नहीं है, इसलिए वे शास्त्र को पकड़े बैठे हुए हैं। जिसके भीतर प्यास हो, वह शास्त्र से कभी तृप्त हुआ है वह किताब से, शब्द से कभी तृप्त हुआ है वह नहीं हो सकता तृप्त। मैं तो अधिक लोगों को किताबों से तृप्त हुआ देखता हूँ। इसलिए लगता है कि कोई प्यास नहीं है। नहीं तो वे परमात्मा को खोजते-खोजते सत्य को, शब्दों को तो नहीं पकड़कर बैठ जाते। हम सब शब्दों को पकड़कर बैठे हुए हैं। यह प्यास की न्यूनता का सबूत, प्रमाण है।

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