ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक ऐसा धर्म चाहिए जो जीवन को, घर को खुशी से भर दे। जो सामान्य जीवन को, सामान्य घरों को, सामान्य दांपत्य को, परिवार को आनंद से भर दे। दुःख और उदास से भरने वाला जीवन नहीं। वैसा धर्म नहीं, वैसा अध्यात्म नहीं। वह अध्यात्म है ही नहीं।
मेरी दृष्टि में तो किसी को भी दुःख देने में जिसे रस आता है वह आदमी दुष्ट है। चाहे वह किसी रूप से दुःख देने की व्यवस्था करता हो।
व्यवस्था कई तरह की हो सकती है। एक समाज-सम्मत व्यवस्था हो सकती है दुःख देने की, एक समाज-असम्मत व्यवस्था हो सकती है। एक आदमी अपनी पत्नी को, बच्चों को छोड़कर वेश्याघर में चला जाता है, तो यह समाज-असम्मत व्यवस्था है पत्नी को दुःख देने की।
इसका हम सब विरोध करेंगे कि यह गलत बात है, यह बुरी बात है। तुम क्यों दुःख दे रहे हो पत्नी को।
लेकिन एक आदमी संन्यासी हो जाता है, यह समाज-सम्मत व्यवस्था है दुःख देने की। इसमें हम उसका आदर करेंगे कि तुम बहुत ही अच्छा कर रहे हो और यह सब असार संसार है तुम छोड़ रहे हो। यह आदमी वही है, यह जरा होशियार है। इसने टार्चर का वह रास्ता खोजा जिसमें आप इनकार नहीं कर सकते। और इसके चित्त में सताने की कोई भावना काम कर रही है। अन्यथा, यहाँ अगर यह परमात्मा को नहीं खोज सकता है तो और कहाँ खोजेगा और फिर हम देखते है कि पत्नी छोड़कर जाता है, बच्चे छोड़कर जाता है, कल शिष्य और शिष्याएं इकट्ठी कर लेता है, कोई परिवार से बाहर होता नहीं। फिर नया परिवार बना लेता है। फिर वही-वही गोरखधंधा खड़ा कर लेता है तो यह इसको समझ भी नहीं पाता, उसको आश्रम कहता है, इसको घर कहता था। वही सब गोरखधंधा है, वही सब। सब वही उपद्रव चलता है। यहाँ एक माताजी थीं, वहाँ आश्रम में एक माताजी बना लेता है। ये माताजी हैं इनके पैर पड़ो। तो घर में ही माताजी के पैर पड़े जा सकते थे। लेकिन घर की माताजी असार हो गईं, ये माताजी बहुत कीमत की हैं। ये आश्रम वाली माताजी हैं।
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