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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

और साहस का एक ही अर्थ है अपनी हमने जो प्रतिमा बना रखी है, स्वयं को हम जो समझे हुए बैठे हैं, और समझा रहे हैं कि हम हैं--उसे गिर जाने का, उसकी ईंटें खिसक जाने का, उसके भवन के मिट जाने का हम में बल चाहिए कि हम उसे गिरता हुआ देख सकें। और पुराना चर्च गिरे तो ही फिर नया चर्च बन सकता है।

मैं फिर से वह कहानी, जिससे मैंने तीन दिनों की सुबह की चर्चाएं शुरू की थीं, दोहरा देता हूँ।

एक पुराना चर्च था। गिरने को हो आया था। हवा के झोंके चलते थे तो उसकी दीवालें कंपती थीं और पलस्तर गिरता था। उसके भीतर खड़े होकर प्रार्थना करना असंभव था। प्रार्थना दूर, उसके निकट से निकलना असंभव था। खतरा था, वह कभी भी गिर जाए और प्राण ले ले। पुरानी चीजों का होना, हमेशा खतरा है, वे कभी भी गिर सकती हैं और प्राण ले सकती हैं।

फिर चर्च की कमेटी बैठी और उसने निर्णय किया। उसने चार प्रस्ताव पास किए--एक, कि पुराना चर्च गिरा देना है। दो, कि नया चर्च बनाना है। तीन, कि नए चर्च को पुराने चर्च की ईंटों, पत्थरों और सामान से ही बनाना है। और चार, कि जब तक नया चर्च न बन जाए, तब तक पुराना चर्च नहीं गिराना है।

पहले दो प्रस्ताव तो ठीक। लेकिन पिछले दो प्रस्ताव बड़े पागलपन के हैं। पुराने चर्च की ईंटों से नया चर्च कभी बन ही नहीं सकता। वह पुराना ही होगा। उसका ही मॉडीफाइड रूप होगा। फिर पुराना जब तक न गिरे, तब तक नया बनाना नहीं है। तो नया बनेगा ही नहीं। क्योंकि पुराने की भूमि ही नए के बनने की भूमि भी है। पुराना गिरे तो ही नया बन सकता है।

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