ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
|
5 पाठकों को प्रिय 434 पाठक हैं |
माथेराम में दिये गये प्रवचन
एक फकीर था। एक पहाड़ी के किनारे चुपचाप बैठा रहता, सोया रहता। एक युवक सत्य की, ईश्वर की खोज में पहाड़ पर गया था। उसने उस फकीर से पूछा कि आप चुपचाप यहाँ क्यों बैठे हैं? ईश्वर को नहीं खोजना है? उस फकीर ने कहा, जब तक खोजता था, तब तक नहीं मिला। फिर मैं ऊब गया और मैंने वह खोज छोड़ दी और जिस दिन मैंने सब खोज छोड़ दी, मैं हैरान हो गया। मैं तो उसमें मौजूद ही था। खोज रहा था, इसलिए दिखाई नहीं पड़ रहा था।
कई बार खोजने का तनाव ही खोजने में बाधा बन जाता है। कई बार हम जिस चीज को खोजते हैं, खोजने के कारण ही उसको नहीं उपलब्ध हो पाते हैं।
कभी खयाल किया आपने--किसी आदमी का नाम खो गया है आपके मन में और आप खोजने को लगे हुए हैं। खोजते हैं और परेशान हो जाते हैं, सिर ठोक लेते हैं कि बिलकुल जबान तक आता है, लेकिन आता नहीं। पता नहीं चलता, कहाँ गया, कैसे खो गया।
मालूम है मुझे। यह भी मालूम है कि मुझे मालूम है। भीतर आता है, पर न मालूम कहाँ अटक जाता है। फिर आप खोज छोड़ देते हैं। फिर आप अपनी बगिया में गड्ढा खोद रहे हैं, या अपने कुत्ते के साथ खेल रहे हैं, या अपने बच्चे से गपशप कर रहे हैं और एकदम आप हैरान हो जाते हैं, वह नाम मौजूद हो गया, वह आ गया है। और तब आप समझ भी नहीं पाते कि यह कैसे आ गया।
आप खोजते थे--खोजने के तनाव की वजह से मन अशांत हो गया। अशांत होने की वजह से उसे रास्ता नहीं मिलता था आने का। वह अटका रह गया पीछे। आप शांत हो जाओ तो वह आ जाए। आप अशांत हो तो वह आए कहाँ से, द्वार कहाँ मिले, रास्ता कहाँ मिले?
|