ई-पुस्तकें >> असंभव क्रांति असंभव क्रांतिओशो
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माथेराम में दिये गये प्रवचन
लेकिन हम तो.... , एक आदमी को मैं देखता था, रोज सांझ वे घूमने जाते थे। लेकिन घूमने भी वे ऐसे जाते थे, इतनी तेजी से कि जैसे किसी युद्ध पर जा रहे हों। तो मैंने उन्हें टोका और मैंने कहा कि आप किसी लडाई पर जाते हैं रोज, उन्होंने कहा, लडाई पर। मैं तो घूमने जाता हूँ। तो मैंने कहा, लेकिन जाते आप ऐसे हैं, इतने तने हुए, इतने खिंचे हुए, इतने परेशान, इतने भागे हुए, जैसे कहीं पहुंचना हो। कहाँ पहुंचने के लिए जाते हैं? उन्होंने कहा, पहुंचने। मैं सिर्फ घूमने जाता हूँ। लेकिन मैंने कहा, आपका मन घूमने की दशा में नहीं होता। घूमने जाने का मतलब है ऐसे जाना, जैसे कहीं पहुंचना नहीं है। कोई हम यात्रा थोड़े ही कर रहे हैं। यात्रा जब कोई करता है तो तना हुआ, खिंचा हुआ--उसे कहीं पहुंचना है।
आपको कहीं पहुँचना नहीं है। और अगर आप सम-वेअर, कहीं पहुंचने की कोशिश करेंगे तो एक बात तय समझ लेना, वहाँ नहीं पहुंच सकेंगे जहाँ आप हैं। और जिस दिन आप इस तरह जिएंगे, नो-वेअर, कही भी नहीं पहुंचना है, उस दिन आप वहाँ पहुंच जाएंगे, जहाँ आप हैं। जहाँ मैं बैठा हूँ, वहाँ पहुँचने के लिए मुझे सब पहुँचने की जो दौड़ है चित्त से, वह छोड़ देनी होगी।
तो इन दिनों में ऐसी कोशिश न करें कि आप ध्यान सीख रहे हैं। आप ऐसी कोशिश न करें कि सत्य को खोज रहे हैं। ऐसी कोशिश न करें कि परमात्मा के दर्शन करने हैं। अगर यह कोशिश आपके भीतर रही तो आप शांत ही नहीं हो सकेगे, दर्शन तो बहुत दूर है। आप शांत ही नहीं हो सकेंगे, सत्य तो बहुत दूर है। आप शांत ही नहीं हो सकेंगे, परमात्मा की यात्रा फिर नहीं हो सकती।
परमात्मा की यात्रा बडी अजीब है। परमात्मा की यात्रा वही करता है--वही कर सकता है, जो सब यात्रा छोड़ देता है। इतना शांत हो जाता है कि उसे कहीं भी नहीं पहुंचना है।
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