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असंभव क्रांति

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :405
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9551
आईएसबीएन :9781613014509

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माथेराम में दिये गये प्रवचन

दूसरी बाल्टी में उसने मेढक को डाला। उसमें कुनकुना पानी--ल्यूक-वार्म और धीरे-धीरे बाल्टी को नीचे से वह गरम करता गया। मेढक मर गया। धीरे-धीरे पानी गरम होता गया, धीरे-धीरे पानी गरम होता गया। मेढक को किसी तल पर यह पता नहीं चला कि पानी इतना गरम हो गया है कि मैं निकल जाऊं। धीरे-धीरे पानी गरम हुआ, मेढक एडजस्ट होता गया। मेढक जो था, वह धीरे-धीरे उस पानी से राजी होता गया, वह धीरे-धीरे गरम होता गया--डिग्री, आधा-डिग्री गरम होता रहा। मेढक भी उसके साथ तैयारी करता रहा और गरम होता गया। मेढक, थोडी देर में जब वह पानी उबला तो मेढक उसी में उबल गया और मर गया।

पहला मेढक छलांग लगाकर क्यों निकल सका, दूसरा मेढक छलांग लगाकर क्यों नहीं निकल सका?

दूसरे मेढक को पानी के गरम होने का तथ्य तीव्रता से दिखाई नहीं पड़ सका। धीरे-धीरे पानी गरम होता गया, वह एडजस्ट होता गया और अंत में मर गया।

जो अहिंसक दिखाई पड़ते हैं, वे अपनी हिंसा को कभी नहीं देख पाते अहिंसा के कारण। उनके भीतर की हिंसा ल्यूक-वार्म मालूम पड़ने लगती है, कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है। वे रोज छानकर पानी पी लेते हैं। रात भोजन नहीं करते हैं। मांस नहीं खाते हैं। ऐसे वे अहिंसक हो जाते हैं। भीतर की हिंसा कुनकुनी मालूम पड़ने लगती है। लेकिन अगर वे अहिंसा की इस सारी बातचीत को अलग कर दें और पूरी दृष्टि से भीतर की हिंसा को देखें तो जैसे मेढक छलांग लगाकर बाहर निकल गया, वैसे ही मनुष्य हिंसा के बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य दुःख के भी बाहर निकल सकता है। वैसे ही मनुष्य अज्ञान के भी बाहर निकल सकता लेकिन हमारे आदर्श हमारे जीवन को कुनकुना बना देते हैं। और जो आदमी अपने जीवन को जितना आदर्शों से घेर लेता है, उतना ही उसके जीवन में ट्रांसफार्मेशन, वह क्रांति का क्षण कभी भी नहीं आ पाता, जो जीवन को बदल दे और नया कर दे।

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