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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।

मारने लगी।

व्यर्थ। सब व्यर्थ। वह मृत्यु-गन्ध नहीं दबती, न दबेगी, सब जगह फैली हुई है सब-कुछ में बसी हुई है सब-कुछ मरा हुआ है, सड़ रहा है, घिनौना है - बेपना है...

एकाएक योके को लगा कि वह गन्ध और कहीं से नहीं आ रही है, उसी में है - उसी की देह में से आ रही है। वह दरवाजे से उठ गयी और खिड़की के पास गयी। फिर उसने एक गिलास उठाकर खिड़की के बाहर से उसमें बर्फ भरी और बर्फ की मुट्ठियाँ बाँधकर उससे अपने हाथ, अपनी बाँहें, अपना चेहरा रगड़ने लगी... व्यर्थ, वह गन्ध छूटती नहीं, वह योके में भीतर तक बस गयी है। वह योके की अपनी गन्ध है - योके ही वह गन्ध है... उसने एक बार विमूढ़ भाव से अपने हाथ की ओर देखा, फिर गिलास को उठाकर सूँघा - उफ, बर्फ भी मृत्यु-गन्ध से भरी हुई थी। या कि उसके स्पर्श से ही वह गन्ध बर्फ में भी बस गयी है!

केवल मृत्यु की प्रतीक्षा - मरने की प्रतीक्षा, सड़ने और गन्धाने की प्रतीक्षा... वह गन्ध पहले ही सब जगह और सब-कुछ में है और हम सर्वदा मृत्यु-गन्ध से गन्धाते रहते हैं...

वह और मृत्यु-गन्ध - अकेली वह और सर्वत्र व्यापी हुई मृत्यु-गन्ध - गन्ध के साथ अकेली वह।

एक उन्मत्त अतिमानवी निश्चय से भरकर योके ने कम्बल और चादर उठाकर दरवाजा खोल दिया। वह सेल्मा को उठाकर ईश्वर के मुँह पर दे मारेगी - कहेगी कि लो अपनी सड़ी हुई, गन्धाती हुई मृत्यु, और छोड़ दो मुझे मेरे अकेलेपन के साथ! लेकिन दो कदम आगे बढ़कर ही वह ठिठक गयी, मानो लकवे से जड़ित हो गयी। उसे लगा कि सेल्मा की खुली आँखें एकटक उसे देख रही हैं, जैसे उस दिन देख रही थीं जब सेल्मा ने पूछा था, 'लेकिन तुम रुक क्यों गयीं?'

योके सेल्मा के पलँग की ओर और नहीं बढ़ सकी, ईश्वर के विरुद्ध ही उसका आक्रोश फिर प्रबल हो आया। थुड़ी है ईश्वर पर जो उसे इतना अकेला करके भी अकेला नहीं छोड़ रहा है, जो एक लाश की आँखों में छेद करके उनके भीतर से मुझे झाँक रहा है,

मुझ पर जासूसी करने आया है - थुड़ी है!

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