ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
चौथे दिन जब दरवाजा खटखटाया गया तो मानो उसने पहचाना कि वह इसी की प्रतीक्षा कर रही थी लेकिन यान ने पुकारकर जो कहा उसकी प्रतीक्षा उसे नहीं थी।
'लोग आ रहे हैं। दूर एक नाव दीख रही है। बाढ़ उतर गयी है– सेल्मा! बाहर आओ!'
लेकिन यह मानो समाचार नहीं था। पहेली थी। कौन-सी बाढ़, कौन लोग? कहाँ से आ रहे हैं? फिर भी यन्त्रचालित-सी सेल्मा ने बाहर जाकर दरवाजे खोल दिये। और यान के संकेत पर दूर क्षितिज की ओर देखने लगी।
हाँ नाव, बड़ी नाव, काली-सी नाव और उसमें झलकते हुए कई एक काले-काले सिर।
सेल्मा यान के पास ही काफी देर तक खड़ी रही। नाव इतनी पास आ गयी थी कि उसके लोगों ने शायद उन दोनों को देख लिया था। नाव में से दो-तीन आदमी हाथ हिलाकर इशारा कर रहे थे। लेकिन इशारे का उत्तर देने का मानो सेल्मा को ध्यान ही नहीं हुआ; उसका बोध यहीं तक था कि अभी थोड़ी देर में सहायता की टोली उन तक पहुँच जाएगी और उनका उद्धार हो जाएगा - यानी उसका और यान का एक-दूसरे से उद्धार हो जाएगा।
उसने एकाएक यान की ओर मुड़कर कहा, 'यान, अब तो मेरा कुछ नहीं है। अब मैं फिर पूछती हूँ, मुझे स्वीकार करोगे?'
यान ने एक बार उसकी ओर देखा। फिर जेब में हाथ डाला और सेल्मा का दिया हुआ कागज निकाला, यत्नपूर्वक उसे फाड़कर उसकी चिन्दियाँ कीं और उन्हें हवा में उड़ा दिया। इसके अतिरिक्त और कोई उत्तर उसने सेल्मा को नहीं दिया। फिर वह मानो पूरे एकाग्र मन से हाथ हिलाकर नाववालों के इशारों का जवाब देने लगा।
इससे आगे जो कुछ हुआ वह मानो स्वप्न में हुआ। स्वप्न में ही सेल्मा ने पहचाना कि उसे सहारा देकर नाव में उतारा गया है, कि उसके बाद यान भी उतरा है, कि वे दोनों ही नाव में बैठे हैं, और नाव पुल से हट रही है। स्वप्न में ही उसने देखा कि वह टूटा पुल उनसे दूर हटता हुआ आकाश का अंग बनता जा रहा है - उनके जीवन का अंग नहीं, केवल सूने आकाश का अंग।
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