ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
लेकिन थोड़ी देर बाद सेल्मा को भी लगा कि वह कुछ खा नहीं सकेगी - यान के पास बैठकर किसी तरह नहीं। अपनी तश्तरी उठाकर वह खड़ी हो गयी और बोली, 'मैं उधर ही ले जा रही हूँ, अभी नहीं खा सकूँगी।' और यान कुछ कह सके इससे पहले ही जल्दी से जेब से कागज निकालकर उसे यान के पास रखते हुए बोली, 'और यह लो - यह तुम्हारे लिए लायी थी।'
'यह क्या है ?'
'तुम मुझे न्यौता देने आये थे पर अपमान करके चले आये। मैं अपमान करने नहीं आयी, न करूँगी; पर अभी खा नहीं सकूँगी - किसी तरह नहीं।'
सेल्मा तेजी से बरामदे की ओर लौटी और तश्तरी चौकी पर रखकर उसने धड़ाके से दरवाजा बन्द कर दिया। तश्तरी उठाकर वह अन्दर गयी और वहाँ जाकर उसने चौकी पर तश्तरी रख दी। एक बार कुर्सी की ओर देखा कि बैठ जाए, लेकिन फिर बैठी नहीं, वहीं अनिश्चित खड़ी रही। क्योंकि एकाएक उसके आगे एक डगमगाता अँधेरा छा गया - भीतर कहीं बहुत गहरे से एक बुलबुला-सा उठकर उसके गले तक आकर फूट गया और वह फफककर रो उठी।
वही अन्त था। और कुछ पूछने को नहीं था। और कुछ बताने को भी नहीं था। जीवन के मोड़ होते हैं जिनके आगे जरूरी नहीं है कि रास्ता हो ही, कभी अन्धी गली भी होती है। सवेरा हुआ, शाम हुई, दूसरा दिन हुआ और फिर तीसरा दिन। सेल्मा न बाहर निकली, न उसने बरामदे में से बाहर झाँका, उसने मन-ही-मन यह जिज्ञासा की कि यान क्या कर रहा होगा। या कि आगे क्या होगा। सब कुछ समाप्त हो चुका था; और उसने जान लिया था कि सब कुछ समाप्त हो गया है - स्वीकार कर लिया था कि यही समाप्ति है। यान ने उसका प्रत्याख्यान कर दिया था, और उसने अपनी सारी कमाई का - क्योंकि उस सबकी वसीयत वह यान के नाम लिखकर दे आयी थी। और कहीं कुछ नहीं था! और कहीं कुछ नहीं था...। कोई जिज्ञासा नहीं थी...। कोई उत्तर नहीं था... कोई ध्रुवता नहीं बची थी क्योंकि कोई विरोध नहीं बचा था। बाहर बाढ़ नहीं थी, और काल का प्रवाह भी नहीं था। केवल एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल-कहाँ से कहाँ तक और कब तक! एक टूटा हुआ अर्थहीन पुल जो कि वह स्वयं है - वह, सेल्मा, जो न कहीं से है, न कहीं तक है - जो है तो यह भी नहीं जानती कि कब तक है।
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