ई-पुस्तकें >> अपने अपने अजनबी अपने अपने अजनबीसच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय
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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।
लेकिन घनी रात में कहीं वह एकाएक हड़बड़ाकर जागी और उठ बैठी। आँखों की और शिराओं की कसक कह रही थी कि अभी घोर रात है। लेकिन परदों की ओट से भी अंगारे-सा लाल उजाला मानो उसके अनुभव का खंडन कर रहा था। जल्दी से एक चादर कन्धों पर डालकर वह बरामदे तक आयी, परदा हटाकर उसने बाहर झाँका और झाँकती रह गयी।
फोटोग्राफर की दुकान धू-धू जल रही थी।
इससे पहले कि सेल्मा कुछ सोच भी सके कि उसे क्या करना चाहिए, उसने देखा कि फोटोग्राफर दुकान की ओट से निकलकर सामने की ओर आया और कमर पर हाथ टेककर आगे की ओर देखने लगा। फिर एकाएक वह ठोढ़ी उठाकर हँसा - सेल्मा हँसी सुन नहीं सकी, पर जो उन्मत्त अमानुषी भाव फोटोग्राफर के चेहरे पर झलक आया था और जिस ढंग से उसका जीर्ण देहपिंजर हिल उठा था, उससे यह अनुमान कठिन नहीं था कि वह हँस रहा है। यद्यपि उस अमानुषी विस्फोट को हँसी कहना भाषा के चयन के साथ अत्याचार करना ही है।
सेल्मा का जड़ित मोह एकाएक टूट गया। उसने झटके से दरवाजा खोला और बाहर बढ़ने को ही थी कि फिर एक बार ठिठक गयी। उस पार यान भी बाहर निकल आया था और फोटोग्राफर की ओर लपक रहा था। एकाएक फोटोग्राफर जोर से चीखा और धारा में कूद पड़ा। वह चीख सेल्मा सुन सकी। वह एकाएक प्रवाह के कारण कट गयी, लेकिन जिस ढंग से कटी उससे यह सन्देह बना ही रह गया कि वह चीख एक पागल हँसी थी - एक पागल अट्टहास का आरम्भ जो कि चीख के साथ छोटे-छोटे विस्फोटों में बँट जाता है - या कि पानी ने ही एकाएक साँस तोड़कर दो-तीन बुलबुलों में बाँट दिया था।
सेल्मा की टाँगें लड़खड़ाने लगीं और वह बरामदे की सीढ़ी पर बैठ गयी। टाँगें न लड़खड़ायी होतीं तो भी वह आगे बढ़ सकती थी यह नहीं कहा जा सकता था। यान धीरे-धीरे बढ़ रहा था, जहाँ से फोटोग्राफर कूदा था वहाँ पहुँचकर वह खड़ा होकर एकटक पानी को ताकता रहा। कुछ करने को नहीं था। फोटोग्राफर पुल के नीचे से होकर न जाने कितनी दूर चला गया होगा। हाँ, सचमुच न जाने कहाँ चला गया होगा! क्योंकि अब यह भी कहना शायद झूठ होगा कि वह बाढ़ में बह रहा होगा - बाढ़ भी उसके लिए उतनी सारहीन और सत्वहीन हो गयी होगी जितनी कि उसकी अपनी देह...
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