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अपने अपने अजनबी

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :165
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9550
आईएसबीएन :9781613012154

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अज्ञैय की प्रसिद्ध रचना - सर्दियों के समय भारी हिमपात के बाद उत्तरी ध्रूव के पास रूस में अटके दो लोगों की कहानी।


नाश्ता करने के बाद ही लगा कि कमरे के प्रकाश का रंग कुछ बदल गया है - कुछ उजाला हो गया है। बुढ़िया के घुटनों पर एक कम्बल डालकर मैंने जाकर द्वार खोलने की कोशिश की। वह नहीं खुला, और मैं फिर बैठ गयी। बुढ़िया ने कहा, 'ऊपर से बर्फ शायद हट गयी। पर अभी बाहर निकलना तो नहीं हो सकता, और ठंड भी होगी। शायद आजकल में थोड़ी धूप भी दीख जाए।'

आज बहुत दिन बाद मैंने सहज भाव से आँखें उठाकर बुढ़िया के चेहरे की ओर भरपूर देखा। वह चेहरा कुछ-एक दिन में ही काफी बूढ़ा हो गया था। सभी रेखाएँ अधिक स्पष्ट और गहरी और निर्मम हो गयी थीं और उनके माध्यम से जीवन जो भी नि:संग और निष्करुण सन्देश देना चाहता था वह और भी विशद और असंदिग्ध हो उठा था।

मैंने पूछा, 'आंटी सेल्मा, मैं एक बात अक्सर सोचती हूँ - पूछना चाहती हूँ - वह क्या है जो तुम्हें सहारा देता है, जबकि मुझे डर लगता है?'

बुढ़िया ने तुरन्त उत्तर नहीं दिया। थोड़ी देर बाद बोली, 'क्या सचमुच ऐसा है? मुझे किसका सहारा है, मैं नहीं जानती हूँ। ईश्वर का है, यह भी किस मुँह से कह सकती हूँ? शायद मृत्यु का ही सहारा है। वह है, बिलकुल पास है, सामने खड़ी है - लगता है कि हाथ बढ़ाकर उसका सहारा ले सकती हूँ? ईश्वर... ईश्वर का नाम लेना तो बड़ा आसान है, लेकिन बड़ा मुश्किल भी है। और मौत और ईश्वर को हम अलग-अलग पहचान भी तो कभी-कभी ही सकते हैं। बल्कि शायद मन से ईश्वर को तब तक पहचान नहीं सकते जब तक कि मृत्यु में ही उसे न पहचान लें।'

मैंने धीमे स्वर में कहा, 'यह मेरी समझ में नहीं आया। बल्कि मुझे तो यही सिखाया गया है कि ईश्वर है, इसीलिए मृत्यु नहीं है। मृत्यु केवल भ्रम है।'

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