ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
आत्मज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान शब्द से नहीं, निशब्द से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विचार से नहीं निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं निर्विकल्प समाधि में समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्मज्ञता नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्मज्ञान का संबंध और ज्ञान के लिए नहीं कह रहा हूं। इंजीनियरिंग पढ़नी हो, डाक्टरी पढ़नी हो शास्त्रज्ञान से हो जाएगा। पर स्व के संबंध में कोई सूचना पानी हो तो शास्त्र से हो जाएगी। स्व के संबंध में बोध शास्त्र से नहीं हो सकता। शास्त्र तो विचार को परिपक्व कर देंगे। आत्मज्ञान तो विचार के टूटने से होता है। शास्त्र तो बुद्धि को एक विशिष्ट तर्क भर देंगे।
जैसे सोवियत रूस है, उन्होंने चालीस वर्षों से अपने बच्चे को ईश्वर और आत्मा विरोधी पढा़ए। चालीस वर्षों में सोवियत रूस के बीच करोड़ लोग--ईश्वर और आत्मा नहीं है, ऐसा उनको ज्ञान हो गया। चालीस वर्ष के प्रचार प्रोपेगेंडा ने सोवियत रूस में यह स्थिति पैदा कर दी कि बीस करोड़ लोगों को यह ज्ञान हो गया कि आत्मा और ईश्वर नहीं है। इसको ज्ञान कहिएगा? इसको ज्ञान नहीं कह सकते। यह केवल विचार का परिपक्व होना हो गया एक पक्ष में। और आप सोचते हैं, आपको आत्मा का ज्ञान हो गया है तो आप भी गलती में हैं। आपका मुल्क भी पाच हजार वर्ष से प्रचार कर रहा है कि आत्मा है, आत्मा है, ईश्वर है। उस प्रोपगेंडा से प्रभावित हैं। एक प्रोपेगेंडा से वे प्रभावित हैं, एक प्रचार उनके चित्त में बैठ गया, एक प्रचार आपके चित्त में बैठा है। दोनों ही प्रचार हैं। प्रचार से एक विचार परिपक्व हो जाता है, अनुभव नहीं होता है। मेरा मानना है, अगर उनको सत्य का अनुभव करना है तो अपना प्रचार छोड़ देना पडे़गा। आत्म-सत्य का अनुभव करना होगा तो अपना प्रचार छोड़ना पडे़गा। प्रचार प्रभावित है हमारे ऊपर। सब बाहर के प्रभाव छोड़ देने होंगे। निष्प्रभाव स्थिति में जो स्वयं में भीतर है उसका जागरण होता है। प्रभाव नहीं, क्योंकि प्रभावित तो बाह्य है। प्रभाव का अभाव--उसमें स्वयं का बोध अनुभव होता है।
आत्मज्ञान शास्त्र से नहीं, स्वयं से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान शब्द से नहीं, निशब्द से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विचार से नहीं निर्विचार से उत्पन्न होता है। आत्मज्ञान विकल्पों के इकट्ठा करने से नहीं निर्विकल्प समाधि में समाधान में उत्पन्न होता है। इसलिए शास्त्र आत्मज्ञान नहीं देता, स्वयं का बोध ही, स्वयं के प्रति जागना ही आत्मज्ञान देता है। मैं समझता हूं मेरी बात समझ में आयी होगी।
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