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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

प्रश्न--आप बच्चों के लिए कैसा धर्म चाहते हैं?

उत्तर--हिंदू का नहीं--हिंदू-मुसलमान को तो मैं पागलपन समझता हूं। धर्म यानी धर्म। जैसे विज्ञान, गणित यानी गणित, कोई गणित पूरब का अलग, पश्विम का अलग, हिंदू का अलग, मुसलमान का अलग, ये पागलपन की बातें हैं। गणित अगर सही है तो एक होगा, गलत है तो कई तरफ का हो सकता है। वैसे ही धर्म यानी धर्म। आत्मा के, परमात्मा के पाप के जो भी नियम हैं, जो सार्वलौकिक नियम हैं उनको मैं धर्म का नाम देता हूं।

बच्चे के धर्म से मेरा मतलब है कि बच्चे का जो रुझान है--जैसे बच्चा खेलना चाहता है, कूदना चाहता है। मेरा कहना है, खेलने और कूदने के साथ ध्यान को जोड़ा जा सकता है-- मेडीटेशन इन एक्शन। बच्चा कवायद कर रहा है।

प्रश्न-- हमारे आश्रम में तो विभाजन था।

उत्तर--काहे में है? हमारे जो आश्रम का विभाजन था, चार विभाजन में हमने आदमी को तोड़ दिया हुआ था। जो पहले पच्चीस वर्ष के थे उसको हम ब्रह्मचर्य की शिक्षा देते थे और मेरा कहना है कि पहले पच्चीस वर्ष काम की शिक्षा दी जानी चाहिए; सेक्स की, ब्रह्मचर्य की नहीं, बेहूदी बात है। सेक्स की परिपूर्ण शिक्षा से ब्रह्मचर्य निकल सकता है। और ब्रह्मचर्य की शिक्षा से सिर्फ सेक्स का सप्रेशन होता है, और कुछ नहीं होता है। और सप्रेस्ड व्यक्ति खतरनाक व्यक्ति है और हजार रोगों का आमंत्रण है उसमें। मेरे में जो फर्क हैं, मैं पच्चीस वर्ष को मानता हूं जैसे ही व्यक्ति सेक्सुअली मेच्योर हुआ--लड़का या लड़की, उसको पूरे काम-काज करके सेक्सुअली की पूरी शिक्षा देनी चाहिए और वे सारी सत्य बातें कह देनी चाहिए जो कि सत्य हैं, लेकिन झूठी शिक्षाएं उनको गलत बातें सीखा रही हैं। सारी दुनिया के अनुभव, वैज्ञानिक शिक्षण यह परिणाम होते निकाली। जैसे ही बच्चे ने दस-बारह साल को पार किया, उसके जीवन में सेक्स की नयी घटना उठ रही है। उस घटना के बाबत सत्य-- नैतिक आधार पर नहीं, वैज्ञानिक आधार पर, हम क्या चाहते हैं उस हिसाब पर नहीं, मनुष्य कैसा है उस हिसाब पर पूरी शिक्षा और मनुष्य के सहज स्थिति की स्वीकृति।

पुराने धर्म में उसकी स्वीकृति नहीं थी। चीजों की स्वीकृति नहीं थी जो हमारे भीतर हैं। उसकी निंदा है, उसका विरोध है, उनको तोड़ डालना है बदल डालना है। इसीलिए तो हमने पाखंडी समाज पैदा कर लिया। क्योंकि जो वास्तविक है उसकी स्वीकृति नहीं है। तो आदमी वास्तविक को भीतर दबा लेता है और जो वास्तविक है ही उसकी खोल ओढ़ लेता है ऊपर से क्योंकि आप कहते हैं कि ऐसा होना चाहिए। अगर सन्यासियों के पास घूम फिर कर अध्ययन करें--और वैज्ञानिक अध्ययन कभी कुछ होता नहीं। आमतौर से जिन सन्यासियों को स्त्री का साथ नहीं मिला, उनमें होमोसेक्सुअलिटी पैदा हो जाने वाली है, मैं कह रहा हूं, ब्रह्मचर्य की शिक्षा का सवाल नहीं है, सवाल है काम की और सेक्स की शिक्षा का। आपके उस आश्रम में जिसको आप ब्रह्मचर्य आश्रम कहते थे, सेक्स की कोई शिक्षा कभी नहीं दी गयी थी, सिवाय सेक्स की निंदा के और विरोध के; इससे ज्यादा कोई शिक्षा कभी नहीं दी गई थी। न आपका कोई शास्त्र बताता है कि क्या शिक्षा आप देते थे।

उसे हमने ब्रह्मचर्य का नाम दिया था, वह इसलिए ही दिया था।

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