लोगों की राय

ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार

अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

353 पाठक हैं

ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

प्रश्न--यह सब चलाने के लिए जो पैसा लाओगे सार्वजनों से।

उत्तर--बिलकुल भी नहीं होगा। यह तो मेरे विचार जिसे पसंद हैं वह तो उनके लिए सहायता पहुँचा रहा है। न इससे स्वर्ग का आश्वासन है उसको, न पुण्य का आश्वासन है उसको। ज्यादा से ज्यादा इतना है कि उसने जो गलत किया है उसका पश्वात्ताप है। इससे ज्यादा नहीं है इसमें कोई अर्थ।

प्रश्न--अस्पष्ट

उत्तर--इसकी बहुत फिकर नहीं है। मेरी फिकर यह है एक तो कंट्रोवर्सियल वे हैं नहीं, जो भी मैं कह रहा हूं। वे दिखायी पड़ सकती हैं क्योंकि जिंदगी कंट्रोवर्सियल है। जिंदगी इतनी पैरोडाक्सियल है, उसके इतने पहलू हैं कि जब एक पहलू से हम कुछ बातें करें और दूसरे पहलू से अन्य बात करें, तो अक्सर हम दोनों में मेल नहीं बिठा पाते। लेकिन मैं कोई कंट्रोवर्सियल बात नहीं कर रहा हूं। जब भी मुझ से पूछा जाए तो मैं तैयार हूं। तो वह कंट्रोवर्सियल नहीं है। जैसा अभी आपने पूछा कि दान का और दान का मैंने यह कहा कि मेरे लिए कंट्रोवर्सी नहीं है बात। लेकिन मेरी बात सुनकर यह खयाल पैदा हो सकता है। पर मैं सोचता हूं। कि अगर खयाल भी पैदा हो जाए तो अच्छा है क्योंकि फिर आप पूछते हैं, विचार चलते हैं। वह तो निपट जाएगा, वह तो हल हो जाएगा।

और यह भी मैं फिकर नहीं करता कि जो मैं कहूं वह अगर लोगों की मान्यता के विपरीत पड़ता है तो वे मुझसे दूर चले जाएंगे। अगर मैं, जो कह रहा हूं वह ठीक है तो वे आज दूर जाएंगे, पास आ जाएंगे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उनको देखकर मैं कुछ नहीं कह सकता हूं कि वे पास आएं, क्योंकि वह बेईमानी है। अगर कोई बात करूं सिर्फ इसको खयाल रखकर कि आप मेरे पास आ जाएं तो फिर वह बेईमानी है। और फिर यह असत्य का धंधा होगा पूरा का पूरा क्योंकि आप किसके पास आएंगे वह अगर चिंतन है, तो फिर बड़ी कठिनाई की बात है। तो मैं तो मुझे जो ठीक लगता है वह कहे चला जाऊंगा। कौन पास आता है, कौन दूर जाता है वह भगवान पर छोड़ दूंगा। समझ मेरी इतनी है कि अगर किसी बात में कोई भी सचाई है तो लोग उसके पास आज नहीं कल आ जाते हैं। अगर सचाई नहीं है तो आना भी नहीं चाहिए। वह बात अपने आप मर जाएगी। या तो मेरी बात मर जाएगी तो मर जाना चाहिए अगर वह सच नहीं है। और अगर सच है तो मैं मानता हूं कि इतना मुल्क नहीं मर गया है कि लोग सच के करीब नहीं आ पाएंगे। इतना नहीं मर गया है कोई वह तो करीब आ जाएंगे। दोनों हालतों में कोई फर्क नहीं पड़ता।

बडौदा,
दिनाक ८ सितंबर, १९६८

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book