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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

उस युवक ने कहा, बेफिकर रहो, जिंदगी बीत गयी, आज तक मैंने बंदर का स्मरण नहीं किया क्यों करूंगा? लेकिन पूरी सीढियां भी उतर नहीं पाया था कि बंदर दिखायी पड़ने शुरू हो गए। उसने आंखें मींची, कोशिश की, लेकिन आंख खोलता है तो उसे बंदर का खयाल, आंख बद करता है तो बंदर का खयाल। घर पहुँचा तो वह घबड़ा गया। अब कोई स्मरण ही नहीं है, सिर्फ बंदर का स्मरण रह गया। बहुत नहाता है, बहुत धोता है, भगवान की याद करता है, लेकिन हाथ जोड़ता है भगवान नहीं दिखायी पड़ता है, वहां बंदर ही बंदर दिखाई पड़ते हैं। रात हो गई और बढ़ने लगे। मंत्र पढ़ने का समय करीब आने लगा और बंदरों की भीड़ इकट्ठा हो गयी। आंख बंद करता है तो कतारबद्ध बंदर खड़े हैं, वे दांत चिढ़ा रहे हैं, वे झपटने को तैयार हैं। वह तो पागल होने लगा। उसने कहा, हे भगवान यह क्या हुआ? आज तक बंदर मुझे कभी याद नहीं आए, उनकी याद कैसे आने लगी? रात बीत गयी, कई बार स्नान किया, कई बार कागज हाथ में उठाया, लेकिन बंदर पीछा नहीं छोड़ते हैं। सुबह तक घबड़ा गया। सुबह तो मस्तिष्क जमने लगा चक्कर खाने लगा। भागा हुआ गया फकीर के पास और कहा, आप अपना मंत्र सम्हालो, अब अगले जन्म में यह साधना हो सकेगी, इस जन्म में नहीं। और बड़े नासमझ मालूम पड़ते हो। अगर यह कंडीशन थी कि बंदर के स्मरण से मंत्र खराब हो जाता है तो कम से कम कल न बताते, आज बता देते तो पार हो जाती बात। रात दुनिया का कोई जानवर याद न आया। रात कोई धन याद न आया, कोई स्त्री याद न आयी, कोई मित्र याद न आया, कोई शत्रु याद न आए, बस एक स्मृति रह गयी-- बंदर, बंदर, बंदर। उस फकीर ने कहा, मैं क्या करूं, इस मंत्र की शर्त ही यही है। यह शर्त कोई पूरी करे तो मंत्र सिद्ध होता है।

क्या हुआ होगा उस व्यक्ति को? जिस चीज को निकालना चाहता था, बार-बार निकालना चाहता था वह चीज पुनरुक्त होती चली गयी, वह रिपीट होती चली गयी, उसकी स्मृति गहरी होती चली गयी, वह मन में बैठती चली गयी।

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