ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
बुद्ध ने कहा, मनुष्य की चेतना भी ऐसी ही है। शब्दों की गांठें पड़ जाती हैं चेतना पर, लेकिन वही है, फिर भी फर्क हो गया। रूमाल में गांठें लगी हैं, तो रूमाल व्यर्थ हो गया। उपयोग नहीं किया जा सकता, उसे खोला नहीं जा सकता। रूमाल वही है, गांठों लगा रूमाल व्यर्थ हो गया। उसे खोला नहीं जा सकता, उसका उपयोग नहीं किया जा सकता। इसलिए फर्क भी पड गया और फर्क नहीं भी पडा। मूलतः तो रूमाल वैसा का वैसा है, लेकिन उपयोगिता भिन्न हो गयी। फिर बुद्ध ने पूछा, मैं यह पूछता हूं, इन गांठों को कैसे खोला जाए? क्या मैं इस रुमाल को खींचूं? उन्होंने रूमाल खींचा, गाठें ओर छोटी हो गईं, और मजबूत हो गयीं, एक भिक्षु ने कहा, अगर आप रुमाल खींचते ही गए तो गांठें और मजबूत हो जाएगी, खुलेंगी नहीं।
हम जीवन भर शब्दों की गांठें और खींचते चले जाते हैं, वह और मजबूत होती चली जाती हैं। बुद्ध ने कहा, तो मैं कैसे खोलूं? तब एक भिक्षु ने कहा, इसके पहले कि मैं कुछ कहूं कि रूमाल कैसे खुलेगा, मैं यह देखना चाहूंगा कि गांठें बांधी कैसे गयी हैं, क्योंकि जिस भांति बांधी गयी हों, उल्टे रास्ते से चलने से खुल जाएंगी। बुद्ध ने कहा, यह भिक्षु ठीक कहता है। गांठ कैसे बांधी गयी है, जब तक यह न जान लिया जाए तब तक गांठ खोली नहीं जा सकती। यह भी हो सकता है, खोलने की कोशिश में गांठ और मजबूती से बंध जाए।
मनुष्य के मन पर शब्दों की गांठ कैसे बंध गयी है यह जानना जरूरी है। तो खोलने का रास्ता साफ हो जाता है। जिस रास्ते से चल कर आप इस भवन तक आए हैं, उल्टे चलेंगे तो आप अपने घर पहुंच जाएंगे। जिस रास्ते से गांठ बंधती है, उल्टे जाएंगे तो गांठ खुल जाएगी। यह शब्दों ने मनुष्य के मन को ऐसा जकड़ रखा है।
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