ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
कोई मुझे मिलता है, मैं पूछता हूं, आपका परिचय? वह बता देता, मेरा नाम राम है। फिर मैं दूसरे लोगों को कहता हूं, मैं राम को जानता हूं, मैं जानता क्या हूं? मैं एक शब्द जानता हूं राम, और इस आदमी का नाम राम है, इतना जानने को मैं कहता हूं, मैं जानता हूं, मैं परिचित हूं, मैं भली-भांति जानता हूं। लेकिन उस राम के पीछे क्या छिपा है उस व्यक्ति में क्या छिपा है? उस शब्द में क्या छिपा है? उस शब्द के पार वह जो असली आदमी है वह क्या है? शब्द तो हैं कि सिंबल है, प्रतीक है। वह असली आदमी, सब्स्टेंस क्या है? उसका मुझे कोई पता नहीं है, लेकिन हम नाम जानकर कहने लगते कि मैं परिचित हूं। हमने सब नाम सीख रखे हैं। हमने अपने बाबत भी नाम सीख रखे हैं--शरीर आत्मा, परमात्मा, सब हमने सीख रखे हैं। कोई पूछे कौन हैं आप? तो सीखा हुआ आदमी कहेगा मैं आत्मा हूं। आत्मा अमर है। लेकिन सब शब्द हैं, कोरे शब्द हैं क्योंकि किताब में पढ़ लिए गए हैं। जाना कुछ भी नहीं गया है।
हम सब शब्दों की मालकियत कर बैठे हैं। शब्दों को पकड़कर बैठ गए हैं। और जो आदमी शब्दों का जितना कुशल कारीगर होता है वह उतना ज्ञानी मालूम पड़ता है। शब्दों से ज्ञान का कोई संबंध नहीं है। इसलिए हम पंडितों को ज्ञानी समझ लेते हैं। पंडित भूलकर भी ज्ञानी नहीं होता। होना भी चाहे तो नहीं हो सकता है जब तक कि पंडित होना मिट न जाए। दुनियां में अज्ञानियों को ज्ञान मिल सकता है लेकिन पंडितों को कभी नहीं मिलता है। क्योंकि शब्द पर उनकी इतनी पकड़ है गीता उन्हें कंठस्थ है बाइबिल उन्हें पूरी याद है, उपनिषद उन्हें पूरे रटे हैं। वे कहीं बच्चों वाला काम कर रहे हैं सी ए टी कैट यानि बिल्ली। वह उपनिषद कंठस्थ कर लिए हैं, गीता कंठस्थ कर ली है। जब भी पूछिए तो गीता बोलना शुरू हो जाती है, उपनिषद निकलनी शुरू हो जाती है। हमें लगता है, आदमी बहुत ज्ञानी है। लेकिन क्या निकल रहा है बाहर? सिवाय शब्दों के और कुछ भी नहीं। शब्द के कारण मनुष्य अपने को जानने से वंचित है।
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