ई-पुस्तकें >> अमृत द्वार अमृत द्वारओशो
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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ
प्रश्न-- अस्पष्ट
उत्तर-- वह जो फर्क कर लेते हैं-- मैं नहीं कह रहा अपनी बात--वह जो फर्क कर लेते हैं--केवल ज्ञान तो अनेकों को उपलब्ध हुआ है लेकिन केवल ज्ञान उपलब्ध होने पर जो तीर्थ का प्रवर्तन करते हैं, यानी जो सब धर्मों को वापस स्थापित करते हैं ताकि उसके मार्ग से और लोग भी केवल ज्ञान तक पहुच सकें। केवल ज्ञान उपलब्ध करना-- वे स्वयं मुक्त हो जाते हैं। केवल ज्ञान उपलब्ध करके तीर्थ प्रवर्तन करना, धर्म को पुनर्स्थापित करना है। ऐसे पुनर्स्थापित उनके हिसाब से चौबीस होते हैं। धर्म को पुनर्स्थापित करने वाले लोग हैं। एक तीर्थंकर स्थापना देकर, जब उसका एक वक्त होता है कि कुछ वर्ष बीतने पर वह धर्म फिर विलीन हो जाएगा, वह मार्ग फिर अवरुद्ध हो जाएगा, उसको जो पुनर्स्थापित कर देगा वह केवल ज्ञानी तीर्थंकर है। फिर उन्होंने पच्चीस एक्सप्लेनेशंस खोजे हुए हैं कि पिछले जन्म में तीर्थंकर होने का कर्मबंध करता है, फिर वह तीर्थंकर हो सकता है। जो ऐसा कर्म बंध नहीं करता वह तीर्थंकर नहीं होगा।
लेकिन मेरी यह धारणा नहीं है। मेरी धारणा तो यह है कि जो भी सदधर्म को उपलब्ध होता है और सदधर्म के संबंध में बोलता है वह तीर्थंकर है--मेरी बात कह रहा हूं, मैं जो भी सदधर्म को उपलब्ध होता है--और अगर नहीं बोलता उसके संबंध में तो तीर्थंकर नहीं है, केवल सदधर्म को उपलब्ध है, केवल ध्यानी है। और यह जो बोलना और न बोलना है--मेरी दृष्टि में इस भांति सोचने पर लाखों तीर्थंकर हैं, जैसा हमेशा हुए हैं, हमेशा होंगे। और उसमें उन सबको गिन लेता हूं जो कभी भी, जिसने कभी भी स्वयं सत्य को उपलब्ध होकर सत्य के संबंध में किसी को भी कुछ कहा हो। उस दिशा की तरफ कोई भी इंगित किया हो, चाहे एक को किया हो तो भी वह तीर्थ का प्रवर्तनकर्ता है।
यह भी करना नहीं है उसकी तरफ से कुछ। जैसे यह उपलब्ध होता है, वैसे ही बहुत तेज सहज प्रेरणा, बहुत सहज भाव से उस अनुभूति को दूसरों से कहने की उसको हो जाती है। इसमें कोई चेष्टित नहीं है कि वह कोई जाकर और चेष्टा करके और विचार करके, योजना करके किसी को कहता हो। यह लगभग ऐसा ही है कि अगर मेरे हृदय में परिपूर्ण प्रेम भर गया है, अगर सतत चौबीस घंटे मेरी चेतना प्रेम से भर गयी है तो मेरे तई जो भी आएगा, उसे मैं प्रेम के सिवाय दे नहीं सकूंगा।
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