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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

बुद्ध ने कहा, एक दिन तुम जिस स्थिति में हो, मैं भी था। और आज के दिन मैं जिस स्थिति में हूं, चाहो तो तुम अभी उस स्थिति में भी हो सकते हो। मैं दोनों स्थितियों से गुजर गया और तुम एक से गुजरे हो। और अगर मुझे देखो तो तुम्हारा पुरुषार्थ जाग सकता है। अगर तुम मुझे देखकर अपमानित हो जाओ तो तुम्हारा पुरुषार्थ जाग सकता है और तुम सिह गर्जना कर सकते हो कि मैं भी होकर रहूंगा।

यानी मेरी धारणा में तो यही बात है कि महावीर, बुद्ध और ईसा, इनको देखकर अगर हम अपमानित हो जाए तो पुरुषार्थ जाग जाए। लेकिन हम इतने होशियार हैं कि हम अपमानित नहीं होते, उल्टा उन्हीं का सम्मान करके घर चले आते हैं। उनके पैर में सिर झुका आते हैं। असलियत यह है कि उन्हें देखकर हमें अपमानित हो जाना चाहिए। कहीं हमारे भीतर यह आकांक्षा जग जानी चाहिए कि अगर इनको उपलब्ध हो सका तो तो मैं? लेकिन इससे बचने के लिए कि हमारा पुरुषार्थ न जगे, हम कहेंगे कि वह भगवान हैं, वह तीर्थंकर हैं, वह अवतार हैं, उनको हो सकता है। हम साधारण जन हैं, हमको कैसे हो सकता है? तरकीबें हैं। यह हमारे हिसाब से हम बच जाएं तो उनको अवतार, उनको तीर्थंकर, उनको भगवान कहकर छुटकारा पाते हैं, कि हम साधारण जन, आप हैं भगवान, आप ठहरे विशिष्ट, आप कर सकते हैं, हम कैसे करेंगे? और एक बहुत बहुमूल्य पुरुषार्थ के जगाने का अवसर हम तीर्थंकर कहकर खो देते हैं।

उन्हें अति सामान्य मानने की जरूरत है--जैसा हम हैं, लेकिन उसमें उनको बहुत दुख होगा। उसमें हमें बहुत आत्मग्लानि होगी। अगर हम महावीर को भी अति सामान्य मानें कि वह भी ठीक हमारे जैसे हैं तो फिर हमें बहुत आत्मग्लानि होगी कि फिर हम क्या कर रहे हैं? वह हमारे जैसे हैं, और इस स्थिति को पा सके, और हम क्या कर रहे हैं बैठे हुए? यह आत्मग्लानि न हो, इसलिए हम उनको कहते हैं, तुम तीर्थंकर हो, तुम भगवान हो और हम साधारण जन हैं। हम पूजा ही कर सकते हैं, हम कुछ और नहीं कर सकते।

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