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अमृत द्वार

ओशो

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :266
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9546
आईएसबीएन :9781613014509

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ओशो की प्रेरणात्मक कहानियाँ

प्रश्न-- रहने देना है ऐसा, चिंतन नहीं करना।

उत्तर-- लेकिन मैं इसकी चिंता करके क्या करूंगा? मेरे किस उपयोग की होगी यह चिंता कि कौन छह महीने पीछे है, कौन छह महीने बाद? कौन हजार साल पहले कौन हजार साल बाद-- मेरे किस उपयोग की होगी? नहीं ऐसा तो नहीं है कि मैं शुरू न करूं, इसके लिए कोई उपाय और कोई बहाना खोज रहा हूं? बड़ा रहस्य यह है कि हम बहुत अच्छी बातों के पीछे भी सफेद बहाने खोज लेते हैं। जैसे मैं आज शुरू न करूं तो मैं सोचूंगा कि अभी उदय में नहीं आया। जब उदय में आएगा तभी तो होगा। अब मेरे वश में क्या है, अभी उदय में नहीं होगा। जिसके उदय में है वह अभी करेगा। जिसके उदय में छह महीने बाद है वह छह महीने बाद करेगा। कहीं यह उदय की धारणा केवल अपने न करने की स्थिति को छिपाने का उपाय न हो।

हमारी सामर्थ्य करने की, हम कर सकते हैं। अगर हम न कर सकते होते तो हममें यह आकांक्षा ही नहीं हो सकती थी कि हम शांत हो जाएं। वह आकांक्षा कि शांत होना चाहिए, यह पुरुषार्थ के छिपे हुए रूप की सूचना है कि हम हो सकते हैं। यह आकांक्षा कि आनंद मिलना चाहिए उस सुप्त पुरुषार्थ की सूचना है कि आनंद मिल सकता है। नहीं तो यह प्यास नहीं हो सकती थी। यह आकांक्षा नहीं हो सकती थी। यह भीतर हमारे जो, निरंतर चाहे हम कुछ भी चाहे न करें, हमारे भीतर जरूर एक केंद्र पर यह आकांक्षा बनी ही है। यानी वह आकांक्षा सूचना है किसी सोए हुए पुरुषार्थ की। और अगर हम चेष्टा करें तो वह पुरुषार्थ जाग सकता है और यह आकांक्षा प्राप्ति में परिणत हो सकती है। वह हममें कहीं सोया हुआ है और उस सोए हुए के जगाने के बहुत उपाय हैं। धार्मिक लोगों ने किए हैं, लेकिन हम हर तरकीब को गलत कर देते हैं।

बुद्ध शुरू-शुरू में जब ज्ञान को उपलब्ध हुए तो वह काशी आए। वह काशी के बाहर एक वृक्ष के नीचे ठहरे अकेले थे उस वक्त; कोई भीड़ न थी, कोई संग न था, कोई जानने वाला न था। अभी उन्होंने किसी को उपदेश भी नहीं दिया था। लेकिन ज्ञान उन्हें उपलब्ध हुआ था कि और उसका प्रकीर्ण प्रकाश उनसे दिखाई भी पड़ने लगा था। अनुभव लोगों को होने लगा, कुछ हुआ है। काशी का नरेश संध्या को अपने रथ को लेकर नगर के बाहर निकला था। बहुत चिंतित था। कई भार थे उस पर राज्य के तो सांझ को भ्रमण के निकला था। सारथी से उसने बीच में एकदम कहा कि रोक दो, यह कौन मनुष्य वृक्ष के नीचे लेटा हुआ है? बुद्ध, सांझ को सूरज डूबता था, एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उसने कहा, रोक दो, यह कौन मनुष्य वृक्ष के नीचे लेटा हुआ हुआ है इतना आनंद में, इतना शांत? और उसके पास कुछ दिखायी भी नहीं पड़ता है। थोड़ी देर मैं इससे मिलूं। वह उतर कर बुद्ध के पास गया और कहा, तुम्हारे पास कुछ भी दिखायी नहीं पड़ रहा है, फिर इतने शांत और निश्चिंत कैसे लेटे हो? मेरे पास तो सब कुछ है, लेकिन न निश्चिंतता है, न शांति है।

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