नई पुस्तकें >> रूठी रानी (उपन्यास) रूठी रानी (उपन्यास)प्रेमचन्द
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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है
राव जी यह कहकर दूसरे दिन अजमेर के लिए रवाना हो गए। दीवान ने उनके हुक्म से रामसिर परगना रानी उमादे की जागीर में लिखकर पट्टा उनके पास भेज दिया। अब अजमेर में रानी की अमलदारी है। किलेदार उसकी ड्योढ़ी पर पहरे और कनात का इंतजाम करके रोज शाम-सवेरे सलाम को हाजिर होता है। अजमेर का फौजदार रोज रानी की ड्योढ़ी पर मुजरे के लिए आता है और उसी की सलाह और हुक्म से अपना काम करता है। उमादे का नाम अब ‘रूठी रानी’ मशहूर हो गया है। वह बुर्ज भी अब ‘रूठी रानी का बुर्ज’ कहलाने लगा है और आज तक इसी नाम से मशहूर है।
जोधपुर पहुंचकर राव मालदेव ने सुना कि बंगाल में हुमायूं और शेरशाह से लड़ाई छिड़ गई और दिल्ली-आगरा खाली पड़ा है। लिहाजा इस वक्त उन्होंने बीकानेर का ख्याल छोड़ दिया और पूरब की तरफ लौट पड़े और हिन्दुन बयाना तक फतेह करते चले गए। वहां से लौटकर संवत् १५९२ में बीकानेर भी जीत लिया।
इस बीच शेरशाह हुमायूं को सिंध में भगाकर आगरा पहुंचा। उसके आते ही वे सब राजे, रईस, ठाकुर, जिनके इलाके मालदेव ने दबा लिए थे, बीकानेर की सरपरस्ती में शेरशाह के दरबार में फरियाद के लिए हाजिर हुए और उसे राव पर हमला करने के लिए आमादा करने लगे। मालदेव भी बेखबर न था। अस्सी हजार सवार शेरशाह के मुकाबले के लिए इकट्ठे किए और ईश्वरदास को लिखा कि आप रूठी रानी को लेकर चले आइए और अजमेर के किले में जंगी बन्दोबस्त करा दीजिए। रूठी रानी इस पर कहा– ‘‘मुझे क्या डर पड़ा है? मैं राजपूत की बेटी हूं। किले पर कोई चढ़ आएगा तो मैं कुरमेती हांडी (कुरमेती हांडी महाराणा सांगा की रानी और उदयसिंह की मां थी। जब गुजरात के बादशाह सुलतान बहादुर ने संवत् १५६१ में चित्तौड़ का किला जीता तो कुरमेती बहत्तर हजार औरतों के साथ आबरू बचाने के लिए चिता बनाकर जल मरी) की तरह लड़कर मरूंगी। राव जी को लिख दो कि यह किला मेरे भरोसे पर छोड़ दें और बाकी राज्य को बचाने का इन्तजाम करें।’’
राव जी ने जवाब दिया– ‘‘अजमेर में, तो हम शेरशाह से लड़ेंगे। वहां रानी का रहना मुनासिब नहीं। अगर उन्हें ऐसा ही राजपूती दिखाने की इच्छा है तो जोधपुर का किला हाजिर है। हम उसे बिल्कुल उन्हीं के भरोसे पर छोड़ देंगे। उनको बहुत जल्द लाओ।’’
ईश्वरदास ने तब रानी से कहा– ‘‘बाई जी, महाराज को आपकी बात मंजूर है, मगर अजमेर के बदले जोधपुर का किला आपको सौंपा जाएगा। आप वहां तशरीफ ले चलिए। वह अपना घर है। अजमेर तो परायी जायदाद है, थोड़े ही दिनों से हमारे कब्जे में आया है।’’ रानी ने कहा– ‘‘बहुत खूब ! जो राव की मर्जी हो, अजमेर न सही, जोधपुर सही। सवारी का इन्तजाम करो। अगर यह मौका न आता तो मैं यहां से हरगिज न जाती।’’
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