नई पुस्तकें >> रूठी रानी (उपन्यास) रूठी रानी (उपन्यास)प्रेमचन्द
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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है
राव जी ने इस दोहे को सुनकर फरमाया– ‘‘चारण जी, बेशक जैसलमेर की औरतें बहुत अच्छी होती हैं पर मुझे तो वह जरा भी रास न आयी।’’
ईश्वरदास– ‘‘यह हुजूर क्या फरमाते हैं। जैसलमेर की अच्छी औरत उमादे तो...’’
राव जी– (बात काटकर) ‘‘अजी, वह तो सात फेरों की रात से ही रूठी बैठी है।’’
ईश्वरदास– ‘‘हुजूर गुस्ताखी माफ, आपने उसे भी मामूली औरत समझा होगा। खैर, चलिए बंदा अभी मेल कराए देता है।’’
राव जी ने भी ख्याल किया कि यह बात बनाने वाला आदमी है। क्या अजब है, रानी को बातों में लगाकर ढर्रे पर ले आए। उसके साथ उमादे के महल की तरफ चले। यकायक चलते-चलते रुक गए और ईश्वरदास से बोले– ‘‘आप चलते तो हैं मगर वह बोलेंगी भी नहीं।’’
ईश्वरदास– ‘‘हुजूर, मैं चारण हूं, चारण चाहे तो एक बार मुर्दें को जगा सकता है। वह तो फिर भी जीती है।’’
दरवाजे पर पहुंचकर ईश्वरदास जी ने राव जी को अपने पीछे बिठा लिया और उमादे से कहला भेजा कि मैं राव जी के पास से कुछ कहने के लिए हाजिर हुआ हूं। उमादे पर्दें के पीछे आ बैठी। ईश्वरदास से बड़े अदब से कहा– ‘‘बाई जी, सलाम कबूल हो।’’
उमादे ने कुछ जवाब न दिया। ईश्वरदास न फिर कहा– ‘‘मेरा मुजरा कबूल हो।’’ जब उसका भी जवाब न मिला तो राव जी ईश्वरदास के कान में धीमे से कहा– ‘‘देखो, मैं न कहता था कि वह न बोलेंगी। मुर्दा बोले तो बोले मगर उनका बोलना नामुमकिन है।’’
ईश्वरदास– ‘‘बाई जी, मैं भी आप ही के घराने का हूं। इसीलिए, बाई जी, बाई जी, करता हूं। अगर ऐसा न होता तो तुम देखतीं कि तुम्हारें खानदान को कैसा शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इन्सानियत है कि मैं तो मुजरा अर्ज करता हूं और शर्मिंदा करता। यह कौन-सी इन्सनियत है कि मैं मुजरा अर्ज करता हूं और तुम जवाब तक नहीं देतीं?’’
उमादे ने इसका भी कुछ जवाब न दिया।
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