नई पुस्तकें >> रूठी रानी (उपन्यास) रूठी रानी (उपन्यास)प्रेमचन्द
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रूठी रानी’ एक ऐतिहासिक उपन्यास है, जिसमें राजाओं की वीरता और देश भक्ति को कलम के आदर्श सिपाही प्रेमचंद ने जीवन्त रूप में प्रस्तुत किया है
उमादे और उसकी सौतिनें
रानी सरूपदेई ने सब रानियों से कहला भेजा कि भट्टानी से मिलने के लिए तैयारी कीजिए। दूसरे दिन सब रानियां बन-ठनकर बड़े ठस्से से उमादे के महल में आयीं। उमादे ने उठकर रानी लाछलदेई को सबसे ऊपर बिठाया और ज्यादातर उसी से बातचीत की; बाकी सब रानियों से मामूली तौर पर मिली और बहुत कम बोली। इसलिए वह दिल में बहुत कुड़बुड़ाई और उसकी शकल-सूरत को देखकर तो उनके दिलों पर दाग पड़ गए।
लौटने पर लाछलदेई तो अपने महल में चली गई, बाकी रानियां सरूपदेई के महल में जमा होकर मशविरा करने लगीं और बहुत दिमाग खर्च करने के बाद यह राय तय कर पायीं की उमादे तो रूठी ही है राव जी को भी जोड़-तोड़ लगाकर उससे खफा करा देना चाहिए ताकि वह उसके महल में जाना बिलकुल छोड़ दें। क्योंकि अगर कभी उसने हंसकर राव जी की तरफ देख लिया तो वह उसी के हो जाएंगे। इतने में राव जी आ गए और पूछा– ‘‘कहो भट्टानी जी कैसी हैं?’’
सरूपदेई– ‘‘हैं तो बहुत अच्छी, पर अल्हड़ बछड़ी है।’’
राव जी– ‘‘तब तो दुलत्तिया भी झाड़ती होंगी।’’
सरूपदेई– ‘‘हमें इससे क्या, जो पास जाए वह लात खाए।’’
राव जी– ‘‘जिसे दुलत्तियां खानी होंगी, वही पास जाएगा।’’
सरूपदेई– ‘‘सौ बात की एक बात तो यही है।’’
तब राव जी ने दूसरी रानी से भी राय पूछी। रानी पार्वती ने कहा– ‘‘महाराज, वह बड़ी घमंडिन है। अपने बराबर हमें क्या मांजी को भी नहीं समझती।’’
झाला रानी हीरादेई ने फरमाया– ‘‘महाराज, कुछ न पूछिए, अपने सिवा वह सबको जानवर समझती हैं।’’
आहड़ी रानी लाछलदेई बोलीं– ‘‘मैं तो जाकर पछतायी। उसकी मां ऐसी जिद्दी छोकरी न जाने कहां से लाई। उसकी आंखों में न लाज है न बातचीत में लोच। मैं तो आपको उसके पास न जाने दूंगी।’’
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