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रंगभूमि (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :1153
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8600
आईएसबीएन :978-1-61301-119

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नौकरशाही तथा पूँजीवाद के साथ जनसंघर्ष का ताण्डव; सत्य, निष्ठा और अहिंसा के प्रति आग्रह, ग्रामीण जीवन में उपस्थित मद्यपान तथा स्त्री दुर्दशा का भयावह चित्र यहाँ अंकित है


यह मंदिर ठाकुरजी का था। बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊंची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन-चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस-पांच आदमी यहां लेटे या बैठे रहते थे। एक पक्का कुआं भी था, जिस पर जगधर नाम का एक खोमचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयां, मूंगफली, रामदाने के लड्डू आदि रखता था। राहगीर आते, उससे मिठाइयां लेते, पानी निकालकर पीते और अपनी राह चले जाते। मंदिर के पुजारी का नाम दयागिरि था, जो इसी मंदिर के समीप एक कुटिया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थे, भजन-कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे और निर्वाण को ढोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुंअर भरतसिंह के यहां मासिक वृत्ति बंधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। निःस्पृह आदमी था, लोभ छू भी नहीं गया था, संतोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्-भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी-सी संगत थी। आठ-नौ बजे रात को, दिन भर के काम-धंधे से निवृत्त होकर, कुछ भक्तजन जमा हो जाते थे, और घंटे-दो घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढोलक बजाने में निपुण था, बजरंगी करताल बजाता था, जगधर को तंबूरे में कमाल था, नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मंजीरेवाली को संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकता, वह मंजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढोल. मंजीरे, करताल, सांरगी, तंबूरा सभी में समान रूप से अभ्यस्त था, और गाने में तो आस-पास के कई मुहल्लों में उसका जवाब न था। ठुमरी-गजल से उसे रुचि न थी। कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि संतों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्रहीन मुख अति आनंद से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते-गाते मस्त हो जाता, तन-बदन की सुधि न रहती। सारी चिंताएं, सारे क्लेश भक्ति-सागर में विलीन हो जाते थे।

सूरदास मिट्ठू को लिए पहुंचा, तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गए थे, केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा–तुमने बड़ी देर कर दी, आध घंटे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ मांगकर खिला दिया करते।

दयागिरि–यहां चला आया करे, तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाए।

सूरदास–तुम्हीं लोगों का दिया खाता है या और किसी का? मैं तो बनाने-भर को हूं।

जगधर–लड़कों को इतना सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते हो, जैसे नन्हा-सा बालक हो। मेरा विद्याधर इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।

सूरदास–बिना मां-बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हां, क्या होगा?

दयागिरि–पहले रामायण की एक चौपाई हो जाए।

लोगों ने अपने-अपने साज संभाले। सुर मिला और आध घंटे तक रामायण हुई।

नायकराम–वाह सूरदास, वाह ! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।

बजरंगी–मेरी तो कोई दोनों आंखें ले ले, और यह हुनर मुझे दे दे, तो मैं खुशी से बदल लूं।

जगधर–अभी भैरों नहीं आया, उसके बिना रंग नहीं जमता।

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