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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है

४३

सन्ध्या का समय था। बनारस के सेशन जज के इजलास में हजारों आदमी जमा थे। लखनपुर के मामले से जनता को अब एक विशेष अनुराग हो गया था। मनोहर की आत्महत्या ने उसकी चर्चा सारे शहर में फैला दी थी। प्रत्येक पेशी के दिन नगर की जनता अदालत में आ जाती थी। जनता को अभियुक्तों की निर्दोषिता का पूरा विश्वास हो गया था। मनोहर के आत्मघात की विविध प्रकार से मीमांसा की जाती थी और सभी का तत्त्व यही निकलता था। कि वही कातिल था और लोग तो केवल अदालत के कारण फँसा दिये गये हैं। डॉक्टर प्रियनाथ और इर्फान अली की स्वार्थपरता पर खुली-खुली चोटें की जाती थीं। प्रेमशंकर की निष्काम सेवा की सभी सराहना करते थे। इस मुकदमे ने उन्हें बहुजनप्रियता बना दिया था।

आज फैसला सुनाया जाने वाला था, इसलिए जमाव भी और दिनों से भी अधिक था। लखनपुर के लोग तो आये ही थे, आस-पास के देहातों से लोग बड़ी संख्या में आ पहुँचे थे। ठीक चार बजे जज ने तजवीज सुनायी-बिसेसर साह रिहा हो गये, बलराज और कादिर खाँ को कालापानी हुआ, शेष अभियुक्तों को सात-सात वर्ष का सपरिश्रम कारावास दिया गया। बलराज ने बिसेसर को सरोष नेत्रों से देखा जो कह रहे थे कि अगर क्षण भर के लिए भी छूट जाऊँ तो खून पी लूँ, कादिर खाँ बहुत दुखी थे और उदास थे। यह तजवीज सुनी तो आँसू की कई बूँदें मूंछों पर गिर पड़ीं। जीवन का अन्त ही हो गया। कब्र से पैर लटकाये बैठे, सजा मिली कालेपानी की! चारों ओर कुहराम मच गया। दर्शकगण अभियुक्तों की ओर लपके, पर रक्षकों ने किसी को उनसे कुछ कहने-सुनने की आज्ञा न दी। मोटर तैयार खड़ी थी। सातों आदमी उसमें बिठाये गये, खिड़कियाँ बन्द कर दी गईं और मोटर जेल की तरफ चली।

प्रेमशंकर चिन्ता और शोक की मूर्ति बने एक वृक्ष के नीचे खड़े सकरुण नेत्रों से मोटर की ओर ताक रहे थे, जैसे गाँव की स्त्रियाँ सिवान पर खड़ी सजल नेत्रों से ससुराल जाने वाली लड़की की पालकी को देखती हैं। मोटर दूर निकल गयी तो दर्शकों ने उन्हें घेर लिया और तरह-तरह के प्रश्न करने लगे। प्रेमशंकर उनकी ओर मर्माहत भाव से देखते थे, पर कुछ उत्तर न देते थे। सहसा उन्हें कोई बात याद आ गयी। जेल की ओर चले। जनता का दल भी उनके साथ-साथ चला। सबको आशा थी कि शायद अभियुक्तियों को देखने का, उनकी बातें सुनने का सौभाग्य प्राप्त हो जाय। अभी यह लोग कचहरी के अहाते से निकले ही थे कि डॉ० इर्फान अपनी मोटर पर दिखायी दिए। आज ही गोरखपुर से लौटे थे। हवा खाने जा रहे थे। प्रेमशंकर को देखते ही मोटर रोक ली और पूछा कहिए, आज तजबीज सुना दी गई?

प्रेमशंकर ने रुखाई से उत्तर दिया, जी हाँ।

इतने में सैकड़ों आदमियों ने चारों ओर से मोटर को घेर लिया और एक तगड़े आदमी ने सामने आ कर कहा– इन्हीं की गरदन पर बेगुनाहों का खून है।

सैकड़ों स्वरों से निकला– मोटर से खींच लो, जरा इसकी खिदमत कर दी जाये, इसने जितने रुपये लिये हैं, सब इसके पेट से निकाल लो।

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