सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
यह कहते-कहते राय साहब की आँखें बन्द हो गयीं। वह दीवार का सहारा लिये हुए दीवानखाने में आये और फर्श पर गिर पड़े। ज्ञानशंकर भी पीछे-पीछे थे, मगर इतनी हिम्मत न पड़ती थी कि उन्हें सँभाल लें। नौकरों ने यह हालत देखी तो दौड़े और उन्हें उठाकर कोच पर लिटा दिया। गुलाब और केवड़े का जल छिड़कने लगे। कोई पंखा झलने लगा, कोई डॉक्टर के लिए दौड़ा। सारे घर में खलबलीमच गयी। दीवानखाने में एक मेला-सा लग गया। दस मिनट के बाद राय साहब ने आँखें खोलीं और सबको हट जाने का इशारा किया। लेकिन जब ज्ञानशंकर भी औरों के साथ जाने लगे, तो राय साहब ने उन्हें बैठने का संकेत दिया और बोले, यह जायदाद नहीं है। इसे रियासत कहना भूल है। यह निरी दलाली है। इस भूमि पर मेरा क्या अधिकार है? मैंने इसे बाहुबल से नहीं लिया। नवाबों के जमाने में किसी सूबेदार ने इस इलाके की आमदानी वसूल करने के लिए मेरे दादा को नियुक्त किया था। मेरे पिता पर भी नवाबों की कृपादृष्टि बनी रही इसके बाद अँग्रेजों का जमाना आया और यह अधिकार पिताजी के हाथ से निकल गया। लेकिन राज-विद्रोह के समय पिताजी ने तन-मन से अँग्रेजों की सहायता की। शान्ति स्थापित होने पर हमें वही पुराना अधिकार मिल गया। यही इस रियासत की हकीकत है। हम केवल लगान वसूल करने के लिए रखे गये हैं। इसी दलाली के लिए हम एक-दूसरे के खून से अपने हाथ रंगते हैं। इसी दीन-हत्या को रोब कहते हैं, इसी कारिन्दगिरी पर हम फूले नहीं समाते। सरकार अपना मतलब निकालने के लिए हमें इस इलाके का मालिक कहती है, लेकिन जब साल में दो बार हमसे मालगुजारी वसूल की जाती है तब हम मालिक कहाँ रहे? यह सब धोखे की टट्टी है। तुम कहोगे, यह सब कोरी बकवाद है, रियासत इतनी बुरी चीज है तो उसे छोड़ क्यों नहीं देते? हाँ! यही तो रोना है कि इस रियासत ने हमें विलासी, आलसी और अपाहिज बना दिया। हम अब किसी काम के नहीं रहे। हम पालतू चिड़ियाँ हैं, हमारे पंख शक्तिहीन हो गये हैं। हममें अब उड़ने की सामर्थ्य नहीं है! हमारी दृष्टि सदैव अपने पिंजरे के कुल्हिये और प्याली पर रहती है, अपनी स्वाधीनता के मीठे टुकड़े पर बेच लिया है।
राय साहब के चेहरे पर एक दुस्सह आन्तरिक वेदना के चिह्न दिखायी देने लगे थे। लेटे थे, कराहकर उठ बैठे। मुखाकृति विकृति हो गयी। पीड़ा से विकल हृदय-स्थल पर हाथ रखे हुए बोले, आह! बेटा, तुमने वह हलाहल खिला दिया कि कलेजे के टुकड़े-टुकड़े हुए जाते हैं। अब प्राण न बचेंगे। अगर एक मरणासन्न पुरुष के शाप में कुछ शक्ति है तो तुम्हें इस रियासत का सुख भोगना नसीब न होगा! जाओ, आँखों के सामने से हट जाओ। सम्भव है, मैं इस क्रोधावस्था में तुम्हें दोनों हाथों में दबा कर मसल डालूँ! मैं अपने आपे में नहीं हूँ। मेरी दशा मतवाले सर्प की सी हो रही है। मेरी आँखों से दूर हो जाओ और कभी मुँह मत दिखाना। मेरे मर जाने पर तुम्हें आने का अख्तियार है। और याद रखो कि अगर तुम फिर गोरखपुर गये या गायत्री से कोई सम्बन्ध रखा तो तुम्हारे हक में बुरा होगा। मेरे दूत परछाहीं की भांति तुम्हारे साथ लगे रहेंगे। तुमने इस चेतावनी का ज़रा भी उल्लंघन किया तो जीते न बचोगे। हाय, शरीर फुँका जाता है। पापी, दुष्ट, अभी गया नहीं! शेख खाँ...कोई...है?...मेरी पिस्तौल लाओ, (चिल्लाकर) मेरी पिस्तौल लाओ, क्या सब मर गये?
ज्ञानशंकर तुरन्त उठ कर वहाँ से भागे। अपने कमरे में आकर द्वार बन्द कर लिया। जल्दी से कपड़े पहने, मोटर साइकिल निकलवायी और सीधे रेलवे स्टेशन की ओर चले। विद्या से मिलने का भी अवसर न मिला।
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