सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
राय साहब ने उन्हें उठाकर बिठा दिया और बोले– लाला, मैं इतना कोमल हृदय नहीं हूँ कि इस आँसुओं से पिघल जाऊँ। आज मुझे तुम्हारा यथार्थ रूप दिखायी दिया। तुम अधर्म स्वार्थ के पंजे में दबे हुए हो। यह तुम्हारा दोष नहीं, तुम्हारी धर्म-विहीन शिक्षा का दोष है? तुम्हें आदि से ही भौतिक शिक्षा मिली। हृदय के भाव दब गये। तुम्हारे गुरुजन स्वयं स्वार्थ के पुतले थे। उन्होंने कभी सरल सन्तोषमय जीवन का आदर्श तुम्हारे सामने नहीं रखा। तुम अपने घर में, स्कूल में, जगत् में नित्य देखते थे कि बुद्धि-बल का कितना मान है। तुमने सदैव इनाम पदक पाए, कक्षा में तुम्हारी प्रशंसा होती रही, प्रत्येक अवसर पर तुम्हें आदर्श बनाकर दूसरों को दिखाया जाता था। तुम्हारे आत्मिक विकास की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया, तुम्हारे मनोगत भावों को, तुम्हारे उद्गारों को सन्मार्ग पर ले जाने की चेष्टा नहीं की गयी। तुमने धर्म और भक्ति का प्रकाश कभी नहीं देखा, जो मन पर छाये हुए तिमिर को नष्ट करने का एक ही साधन है। तुम जो कुछ हो, अपनी शिक्षा प्रणाली के बनाये हुए हो। पूर्व के संस्कारों ने जो अंकुश जमाया था, शिक्षा के सघन वृक्ष बना दिया। तुम्हारा कोई दोष नहीं, काल ओर देश का दोष है। मैं क्षमा करता हूँ और ईश्वर से विनती करता हूँ कि वह तुम्हें सद्बुद्धि दे।
राय साहब के होंठ नीले पड़ गये, मुख कान्तिहीन हो गया, आँखें पथरानें लगीं। माथे पर स्वेद बिन्दु चमकने लगे, पसीने से सारा शरीर तर हो गया, साँस बड़े वेग से चलने लगी। ज्ञानशंकर उनकी यह दशा देखकर विकल हो गये, काँपते हुए हाथों से पंखा झलने लगे; लेकिन राय साहब ने इशारा किया कि यहाँ से चले जाओ, मुझे अकेला रहने दो और तुरन्त भीतर से द्वार बन्द कर दिया। ज्ञानशंकर मूर्तिवत् द्वार पर खड़े थे, मानो किसी ने उनके पैरों को गाड़ दिया हो। इस समय उन्हें अपने कुकृत्य पर इतना अनुताप हो रहा था कि जी चाहता था कि उसी थाल का एक कौर खा कर इस जीवन का अंत कर लूँ। पहले कुछ असर न होगा। लेकिन अब इस आशा की जगह भय हो रहा था कि उन्होंने अपनी योग-शक्ति का भ्रमात्मक अनुमान किया था? क्या करूँ! किसी डॉक्टर को बुलाऊँ? उस धन-लिप्सा का सत्यानाश हो जिसने मन में यह विषय प्रेरणा उत्पन्न की, जिसने मुझसे यह हत्या करायी। हा कुटिल स्वार्थ! तूने मुझे नर-पिशाच बना दिया! मैं क्यों इनका शत्रु हो रहा हूँ? इसी जायदाद के लिए, इसी रियासत के लिए, इसी सम्पत्ति के लिए! क्या वह सम्पत्ति मेरे हाथों में आ कर दूसरों को मेरा शत्रु न बना देगी? कौन कह सकता है कि मेरा भी यही अन्त न होगा।
ज्ञानशंकर ने द्वार पर कान लगा कर सुना। ऐसा जान पड़ा कि राय साहब हाथ-पैर पटक रहे हैं। मारे भय के ज्ञानशंकर को रोमांच हो गया। उन्हें अपनी अधम नीचता, अपनी घोरतम पैशाचिक प्रवृत्तियों पर ऐसा शोकमय पश्चात्ताप कभी न हुआ था। उन्हें इस समय परिणाम कि राय साहब की न जाने क्या गति हो रही है। कोई जबरदस्ती भी करता तो वह वहाँ से न हटते। मालूम नहीं, एक क्षण में क्या हो जाय।
इतने में महाराज थाली में कुछ और पदार्थ लाया। उसे देखते ही ज्ञानशंकर का रक्त सूख गया। समझ गये कि अब प्राण न बचेंगे। यह दुष्ट अभी यहाँ का हाल देखकर शोर मचा देगा। खोज-पूछ होने लगेगी, गिरफ्तार हो जाऊँगा। वह इस समय उन्हें काल स्वरूप देख पड़ता था। उन्होंने उसे समीप न आने दिया, दूर से ही कहा, हम लोग भोजन कर चुके, अब कुछ न लाओ।
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