सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
राय साहब– इच्छा तो सुगन्ध से हो जायेगी, थाली सामने तो आने दो। महाराज को मैंने इनाम देने का वादा किया है। उसने अपनी सारी अक्ल खर्च कर दी होगी।
महाराज ने थाली ला कर ज्ञानशंकर के सामने रख दी। ज्ञानशंकर के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। एक रंग आता था, एक रंग जाता था। छाती बड़े वेग से धड़क रही थी। भय ने आशा को दबा दिया था। वह किसी प्रकार यहाँ से भागना चाहते थे। यह दृश्य उनके लिए असह्य था। उनके शरीर का एक-एक अंग थरथर काँप रहा था, यहाँ तक कि स्वर भी भंग हो रहा था। उन्हें इस समय अनुभव हो रहा था कि जान लेने से कहीं दुष्कर है।
राय साहब ने पाँच ही चार कौर खाये थे कि सहसा उन्होंने थाली से हाथ खींच लिया और ज्ञानशंकर को तीव्र और मर्म-भेदी दृष्टि से देखा। ज्ञानशंकर के प्राण सूख गये। राय साहब ने यदि गोली चलायी तो भी उन्हें इतनी चोट न लगती। संज्ञा-शून्य से हो गये। ऐसा जान पड़ता था। मानो कोई आकर्षण शक्ति प्राणों को खींच रही है। अपनी नाव को भँवर में डूबते पा कर भी कोई इतना भयभीत, इतना असावधान न होता होगा। राय साहब की तीव्र दृष्टि से सिद्ध कर दिया कि रहस्य खुल गया, सारे यत्न, योजनाएँ निष्फल हो गयीं! हा हतभाग! कहीं का न रहा! क्या जानता था कि यह महाशय ऐसे आत्मदर्शी हैं।
इतने में राय साहब ने अपमानसूचक भाव से मुस्कुराकर कहा, मैंने एक बार तुमसे कह दिया कि धन-सम्पत्ति तुम्हारे भाग्य में नहीं है, तुम जो चालें चलोगे वह सब उल्टी पड़ेंगी। केवल लज्जा और ग्लानि हाथ रहेगी।
ज्ञानशंकर ने अज्ञान भाव से कहा, मैंने आपका आशय नहीं समझा।
राय साहब– बिलकुल झूठ है। तुम मेरा आशय खूब समझ रहे हो। इससे ज्यादा कुछ कहूँगा तो उसका परिणाम अच्छा न होगा। मैं चाहूँ तो सारी राम कहानी तुम्हारी जबान से कहवा लूँ, लेकिन इसकी जरूरत नहीं। तुम्हें बड़ा भ्रम हुआ। मैं तुम्हें बड़ा चतुर समझता था; लेकिन अब विदित हुआ कि तुम्हारी निगाह बहुत मोटी है। तुम्हारा इतने दिनों तक मुझसे सम्पर्क रहा, लेकिन अभी तक तुम मुझे पहचान न सके। तुम सिंह का शिकार बाँस की तोलियों से करना चाहते हो, इसलिए अगर दबोच में आ जाओ तो तुम्हारा अपना दोष है। मुझे मनुष्य मत समझो, मैं सिंह हूँ। अगर अभी अपने दाँत और पंजे दिखा दूँ तो तुम काँप उठोगे। यद्यपि यह थाल बीस-पच्चीस आदमियों को सुलाने के लिए काफी है, शायद यह एक कौर खाने के बाद उन्हें दूसरे कौर की नौबत न आयेगी, लेकिन मैं पूरा थाल हजम कर सकता हूँ और तुम्हें मेरे माथे पर बल भी न दिखाई देगा। मैं शक्ति का उपासक हूँ ऐसी वस्तुएँ मेरे लिए दूध और पानी हैं।
यह कहते-कहते राय साहब ने थाल से कई कौर उठा कर जल्द-जल्द खाये। अकस्मात् ज्ञानशंकर तेजी से लपके, थाल उठाकर भूमि पर पटक दिया और राय साहब के पैरों पर गिर कर बिलख-बिलख रोने लगे। राय साहब की योगसिद्धि ने आज उन्हें परास्त कर दिया उन्हें ज्ञात हुआ कि यह चूहे और सिंह की लड़ाई है।
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