लोगों की राय

सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

370 पाठक हैं

‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


राय– तुम उससे क्या चाहते हो?

ज्ञान– उसकी सम्पत्ति और उसका प्रेम।

राय साहब खिलखिला कर हँसे। ज्ञानशंकर को जान पड़ा, मैं कोई स्वप्न देखते-देखते जाग उठा। उनके मुँह से जो बातें निकली थीं। वह उन्हें याद थीं। उनका कृत्रिम क्रोध शान्त हो गया था। उसकी जगह उस लज्जा और दीनता ने ले ली थी जो किसी अपराधी के चेहरे पर नजर आती है, वह समझ गये कि राय साहब ने मुझे अपने आत्मबल से वशीभूत करके मेरी दुष्कल्पनाओं को स्वीकार करा लिया। इस समय वह अत्यन्त भयावह रूप में देख पड़ते थे। उनके मन में अत्याचार का प्रत्याघात करने की घातक चेष्टा लहरें मार रही थीं; पर इसके साथ ही उन पर एक विचित्र भय अच्छादित हो गया था। वह इस शैतान के सामने अपने को सर्वथा निर्बल और आशक्त पाते थे। इस परिस्थितियों से वह ऐसे उद्विग्न हो रहे थे कि जी चाहता था आत्महत्या कर लूँ। जिस भवन को वह छः-सात वर्षों से एक-एक ईंट जोड़ कर बना रहे थे, इस समय वह हिल रहा था और निकट था कि गिर पड़े। उसे सँभालना उनकी शक्ति के बाहर था। शोक! मेरे मंसूबे मिट्टी में मिले जाते हैं। इधर से भी गया, इधर से भी गया। यकायक राय साहब बोले– बेटा, तुम व्यर्थ मुझ पर इतना कोप कर रहे हो। मैं इतना क्षुद्र-हृदय नहीं हूँ कि तुम्हें गायत्री की दृष्टि में गिराऊँ। उसकी जायदाद तुम्हारे हाथ लग जाय तो मेरे लिए इससे ज्यादा हर्ष की बात और क्या होगी? लेकिन तुम्हारी चेष्टा उसकी जायदाद ही रहती तो मुझे कोई आपत्ति न होती। आखिर वह जायदाद किसी न किसी को तो मिलेगी ही और जिन्हें मिलेगी वह मुझे तुमसे ज्यादा प्यारे नहीं हो सकते। किन्तु मैं उसके सतीत्व को उसकी जायदाद से कहीं ज्यादा बहुमूल्य समझता हूँ और उस पर किसी की लोलुप दृष्टि का पड़ना सहन नहीं कर सकता। तुम्हारी सच्चरित्रता की मैं सराहना किया करता था, तुम्हारी योग्यता और कार्य-पटुता का मैं कायल था, लेकिन मुझे इसका जरा भी गुमान न था कि तुम इतने स्वार्थ-भक्त हो। तुम मुझे पाखंडी और विषयी समझते हो, मुझे इसका ज़रा भी दुःख नहीं है। अनात्मवादियों को ऐसी शंका होना स्वाभाविक है। किन्तु मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि मैंने कभी सौंदर्य को वासना की दृष्टि से नहीं देखा। मैं सौन्दर्य की उपासना करता हूँ, उसे अपने आत्म-निग्रह का साधन समझता हूँ, उससे आत्म-बल संग्रह करता हूँ, उसे अपनी कुचेष्टाओं की सामग्री नहीं बनाता। और मान लो, मैं विषयी ही सही। बहुत दिन बीत गये हैं, थोड़े दिन और बाकी हैं, जैसा अब तक रहा वैसा ही आगे भी रहूँगा। अब मेरा सुधार नहीं हो सकता। लेकिन तुम्हारे सामने अभी सारी उम्र पड़ी हुई है, इसलिए मैं तुमसे अनुरोध करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि इच्छाओं के कुवासनाओं के गुलाम मत बनो। तुम इस भ्रम में पड़े हुए हो कि मनुष्य अपने भाग्य का विधाता है। यह सर्वथा मिथ्या है। हम तकदीर के खिलौने हैं, विधाता नहीं। वह हमें अपनी इच्छानुसार नचाया करती है। तुम्हें क्या मालूम है कि जिसके लिए तुम सत्यासत्य में विवेक नहीं करते, पुण्य और पाप को समान समझते हो उस शुभ मुहूर्त तक सभी विघ्न-बाधाओं से सुरक्षित रहेगा? सम्भव है कि ठीक उस समय जब जायदाद पर उसका नाम चढ़ाया जा रहा हो एक फुंसी उसका काम तमाम कर दे। यह न समझो कि मैं तुम्हारा बुरा चेत रहा हूँ। तुम्हें आशाओं की असारता का केवल एक स्वरूप दिखाना चाहता हूँ। मैंने तकदीर की कितनी ही लीलाएँ देखी हैं और स्वयं स्वयं उसका सताया हुआ हूँ। उसे अपनी शुभ कल्पनाओं के साँच में ढालना हमारी सामर्थ्य से बाहर है। मैं नहीं कहता कि तुम अपने और अपनी सन्तान के हित की चिन्ता मत करो, धनोपार्जन न करो। नहीं, खूब धन कमाओ और खूब समृद्धि प्राप्त करो, किन्तु अपनी आत्मा और ईमान को उस पर बलिदान न करो। धूर्तता और पाखंड, छल और कपट से बचते रहो। मेरी जायदाद २० लाख से कम की मालियत नहीं है। अगर दो-चार लाख कर्ज ही हो जाये तो तुम्हें घबड़ाना नहीं चाहिए। क्या इतनी सम्पत्ति मायाशंकर के लिए काफी नहीं है। तुम्हारी पैतृक सम्पत्ति भी २ लाख से कम की नहीं है। अगर इसे काफी नहीं समझते हो तो गायत्री की जायदाद पर निगाह रखो, इसे मैं बुरा नहीं कहता। अपने सुप्रबन्ध से, कार्य कुशलता से, किफायत से, हितेच्छा से, उसके कृपा-पात्र बन जाओ, न कि उसके भोलेपन, उसकी सरलता और मिथ्या भक्ति को अपनी कूटनीति का लक्ष्य बनाओ और प्रेम का स्वाँग भर कर उसके जीवन-रत्न पर हाथ बढ़ाओ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book