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प्रेमाश्रम (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :896
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8589
आईएसबीएन :978-1-61301-003

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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है


ज्ञान– अगर वह अपने वचन पूरे भी कर दें तो आपको २।।-३ लाख की जेरबारी होगी।

राय साहब ने व्यंग्यपूर्ण हास्य के साथ कहा, मैं उसे जेरबारी नहीं समझता। धन सुख-भोग के लिए है। उसका और कोई उद्देश्य नहीं है। मैं धन को अपनी इच्छाओं का गुलाम समझता हूँ, उसका गुलाम बनना नहीं चाहता।

ज्ञान– लेकिन वारिसों को भी तो सुख-भोग का कुछ-न-कुछ अधिकार है?

राय– संसार में सब प्राणी अपने कर्मानुसार सुख-दुःख भोगते हैं। मैं किसी के भाग्य का विधाता हूँ।

ज्ञान– क्षमा कीजिएगा, यह शब्द ऐसे पुरुष के मुँह से शोभा नहीं देते जो अपने जीवन का अधिकांश बिता चुका हो।

राय साहब ने कठोर स्वर से कहा, तुमको मुझे उपदेश करने का कोई अधिकार नहीं है। मैं अपनी सम्पत्ति का स्वामी हूँ, उसे अपनी इच्छा और रुचि के अनुसार खर्च करूँगा। यदि इससे तुम्हारे सुख-स्वप्न नष्ट होते हैं तो हों, मैं इसकी परवाह नहीं करता। यह मुमाकिन नहीं कि सारे संसार में इस कान्फ्रेंस की सूचना देने के बाद अब मैं उसे स्थागित कर दूँ। मेरी सारी जायदाद बिक जाये तो भी मैंने जो काम उठाया है उसे अन्त तक पहुँचा कर छोड़ूँगा। मेरी समझ में नहीं आता कि तुम कृष्ण के ऐसे भक्त और त्याग तथा वैराग्य के ऐसे साधक होकर मायामोह में इतने लिप्त क्यों हो? जिसने कृष्ण का दामन पकड़ा, प्रेम का आश्रय लिया, भक्ति की शरण गही, उसके लिए सांसारिक वैभव क्या चीज है! तुम्हारी बातें सुनकर और तुम्हारे चित्त की यह वृत्ति देख कर मुझे संशय होता है कि तुमने बहुरूप धरा है और प्रेम-भक्ति का स्वाद नहीं पाया। कृष्ण का अनुरागी कभी इतना संकीर्ण हृदय नहीं हो सकता। मुझे अब शंका हो रही है कि तुमने यह जाल कहीं सरल हृदय गायत्री के लिए न फैलाया हो।

यह कह कर राय साहब ने ज्ञानशंकर को तीव्र नेत्रों से देखा! उनके सन्देह का निशाना इतना ठीक बैठा था कि ज्ञानशंकर का हृदय काँप उठा। इस भ्रम का मूलोच्छेद करना परमाश्यक था। राय साहब के मन में इसकी जगह पाना अत्यन्त भयंकर था। इतना ही नहीं, इस भ्रम को दूर करने के लिए निर्भीकता की आवश्यकता थी। शिष्टाचार का समय न था। बोले, आपके मुख से स्वाँग और बहुरूप की लांछना सुना कर एक मसल याद आती है, लेकिन आप पर उसे घटित करना नहीं चाहता। जो प्राणी धर्म के नाम पर विषय-वासना और विष-पान को स्तुत्य समझता हो वह यदि दूसरों की धार्मिक वृत्ति को पाखण्ड समझते तो क्षम्य है।

राय साहब ने ज्ञानशंकर को फिर चुभती हुई दृष्टि से देखा और कड़ी आवाज से बोले, तुम्हें सच कहना होगा!

ज्ञानशंकर को ऐसा अनुभव हुआ मानो उनके हृदय पर से कोई पर्दा-सा उठा जा रहा है। उन पर एक अर्द्ध विस्मृति की दशा छा गयी। दीन भाव से बोले– जी हाँ, सच कहूँगा।

राय– तुमने यह जाल किसके लिए फैलाया है?

ज्ञान– गायत्री के लिए।

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