सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
फैजू समझ गये कि इस धाँधली से काम न चलेगा। कहीं इसने अदालत के सामन जाकर सब रुपये गिन दिये तो अपना-सा मुँह ले कर जाना पड़ेगा। निराश हो कर जूते उतार दिये और नालिश की पर्तें निकाल कर हिसाब जोड़ने लगे, उस पर अदालत का खर्च, अमलों की रिसवत वकील का हिसाब, मेहनताना, ज़मींदार का नजराना आदि और बढ़ाया तब बोले, कुल १७५० रुपये होते हैं।
चौधरी– फिर देख लीजिए, कोई रकम रह न गयी हो। मगर यह समझ लेना कि हिसाब से एक कौड़ी भी बेशी ली तो तुम्हारा भला न होगा?
बिन्दा महाराज ने सशंक हो कर कहा, खाँ साहब जरा फिर जोड़ लो।
कर्तार– सब जोड़ा-जोड़ाया है, रात-दिन यही किया करते हैं, लाओ निकालो १७५०)।
चौधरी– १७५०) लेना है तो अदालत में ही लेना, यहाँ तो मैं १००० रुपये से बेसी न दूँगा।
फैजू– और अदालत का खर्च?
सहसा चौधरी ने अपना चिमटा उठाया और इतने जोर से फैजुल्लाह के सिर पर मारा कि वह जमीन पर गिर पड़ा। तब बोले, यही अदालत का खर्च है, जी चाहें और ले लो। बेईमान, पापी कहीं का! कारिन्दा बना फिरता है। कल का बनिया आज का सेठ! इतनी जल्दी आँखों में चरबी छा गयी। तू भी तो किसी ज़मींदार का असामी है। तेरा घर देख आया हूँ। तेरे माँ-बाप, भाई-बन्द सबका हाल देख आया हूँ। वहाँ उन सब का बेगार भरते-भरते कचूमर निकल जाया करता है। तूने चार अक्षर पढ़ लिये तो जमीन पर पाँव नहीं रखता। दीन-दुखियों को लूटता फिरता है। ८००० रुपये की नालिश है, १००) अदालत का खरच है। मैं कचहरी जाकर पेशकार से पूछ आया। उसके तू १७५०) माँगता है! और क्यों रे ठाकुर तू भी इस तुरक के साथ पड़ कर अपने को भूल गया? चिल्ला-चिल्ला कर रामायण पढ़ता है, भागवत की कथा कहता है, ईट-पत्थर के देवता बना कर पूजता है। क्या पत्थर पूजते-पूजते तेरा हृदय भी पत्थर हो गया? यह चन्दन क्यों लगाता है? तुझे इसका क्या अधिकार है? तू धन के पीछे धरम को भूल गया? तुझे धन चाहिए? तेरे भाग्य में धन लिखा है तो यह थैली उठा ले। (यह कह कर चौधरी ने रुपयों की थैली कर्तार की ओर फेंकी) देख तो मेरे भाग्य में धन है या नहीं? तेरा मन इतना पापी हो गया है कि तू सोना भी छुए तो मिट्टी हो जायगा। थैली छू कर देख ले, अभी ठीकरी हुई जाती है।
कर्तार ने पहले बड़े धृष्ट अश्रद्धा के साथ बातें करना शुरू की थीं। वह यह दिखाना चाहता था, मैं साधुओं का भेष देख कर रोब में आने वाला आदमी नहीं हूँ, ऐसे भोले-भोले काठ के उल्लू कहीं और होंगे। पर चौधरी की यह हिम्मत देखकर और यह कठोपदेश सुनकर उसकी अभक्ति लुप्त हो गयी। उसे अब ज्ञान हुआ कि यह वह चौधरी नहीं है जो गौस खाँ की हाँ-में-हाँ मिलाया करता था, किन्तु बिना परीक्षा किए वह अब भी भक्ति-सूत्र में न बँधना चाहता था, यहाँ तक कि वह उसकी सिद्घि का परदा खोलकर उनकी खबर लेने पर उतारू था। उसने थैली को ध्यान से देखा, रुपयों से भरी हुई थी। तब उसने डरते-डरते थैली उठायी, किन्तु उसके छूते ही एक अत्यन्त विस्मयकारी दृश्य दिखायी दिया। रुपये ठीकरे हो गये! यह कोई मायालीला थी अथवा कोई जादू या सिद्धि कौन कह सकता है। मदारी का खेल था या नजरबन्दी का तमाशा, चौधरी ही जाने। रुपये की जगह साफ लाल-लाल ठीकरे झलक रहे थे। कर्तार के हाथ से थैली छूट कर गिर पड़ी। वह हाथ बाँध कर बड़े भक्ति-भाव से चौधरी के पैरों पर गिर पड़ा। और बोला, बाबा मेरा अपराध क्षमा कीजिए मैं अधम, पापी दुष्ट हूँ, मेरा उद्धार कीजिए। मैं अब आपकी ही सेवा में रहूँगा, मुझे इस लोभ के गड्ढे से निकालिए।
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