सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
चौधरी– बेचारों पर एक विपत्ति तो थी ही, यह एक और बला सवार हो गयी।
फैजू– मैं मजबूर हो गया। क्या करता? जाब्ते और कानून से बँध हुआ हूँ। चैत, बैशाख, जेठ– तीन महीने तक तकाजे करता रहा, इससे ज्यादा मेरे बस में और क्या था।
यह कहकर उन्होंने चौधरी की ओर इस अन्दाज से देखा, मानों वह शील और दया के पुतले हैं।
चौधरी– अगर आज सब रुपये वसूल हो जायें तो मुकदमा खारिज हो जायगा न?
फैजू ने विस्मित हो कर चौधरी को देखा और बोले, खर्चे का सवाल है।
चौधरी– अच्छा, बतलाइए आपके कुल कितने रुपये होते हैं? खर्च भी जोड़ लीजिए। कुछ रुपये भी निकाले और खाँ साहब की ओर परीक्षा भाव से देखने लगे। फैजू के होश उड़ गये, कर्तार के चेहरे का रंग उड़ गया, मानों घर से किसी के मरने की खबर आ गयी हो। बिन्दा महाराज ने ध्यान से रुपयों को देखा। उन्हें सन्देह हो रहा था कि यह कोई इन्द्रजाल न हो। किसी के मुँह से बात न निकलती थी। जिस आशालता को बरसों से पाल और सींच रहे थे वहाँ आँख के सामने एक पशु के विकराल मुख का ग्रास बनी जाती थी। इस अवसर के लिए उन लोगों ने कितनी आयोजनाएँ की थीं, कितनी कूटनीति से काम लिया था, कितने अत्याचार किए थे! और जब वह शुभ घड़ी आयी तो निर्दय भाग्य-विधाता उसे हाथों से छीन लेता था। गौस खाँ का खून रंग ला कर अब निष्फल हुआ जाता था। आखिर फैजू ने बड़े गम्भीर भाव से कहा, इसका फैसला तो अब अदालत के हाथ है।
अदालत का नाम लेकर वह चौधरी को भयभीत करना चाहते थे।
चौधरी– अच्छी बात है तो वहीं चलो।
कर्तार ने नैतिक सर्वज्ञता के भाव से कहा, पहले ये लोग मोहलत की दर्खास्त दें, उस दर्खास्त पर हमारी तरफ से उजरदारी होगी, इस पर हाकिम जो कुछ तजवीज करेगा वह होगा। हम लोग रुपये कैसे ले सकते हैं? जाब्ते के खिलाफ है।
बिन्दा महाराज के सम्मुख एक दूसरी समस्या उपस्थित थी– इसे इतने रुपये कहाँ मिल गये? अभी जेल से छूट कर आया है। गाँव वालों से फूटी कौड़ी भी न मिली होगी। इसके पास जो लेई-पूँजी थी। वह तालाब और मन्दिर बनवाने में खर्च हो गयी। अवश्य उसे कोई जड़ी-बूटी हाथ लग गई है, जिससे वह रुपये बना लेता है। साधुओं के हाथ में बड़े-बड़े करतब होते हैं।
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