सदाबहार >> प्रेमाश्रम (उपन्यास) प्रेमाश्रम (उपन्यास)प्रेमचन्द
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‘प्रेमाश्रम’ भारत के तेज और गहरे होते हुए राष्ट्रीय संघर्षों की पृष्ठभूमि में लिखा गया उपन्यास है
‘आपके यहाँ माहवार कितना दूध आता है और उसकी क्या कीमत पड़ती है?’
‘इसका हिसाब मेरे नौकर रखते हैं।’
‘घी पर माहवार क्या खर्च आता है?’
‘मैं अपने नौकर से पूछे बगैर इन गृह-सम्बन्धी प्रश्नों का उत्तर नहीं दे सकता।’
इर्फान अली ने मैजिस्ट्रेट से कहा, मेरे सवालों के काबिल इत्मीनान जवाब मिलने चाहिए।
मैजिस्ट्रेट– मैं नहीं समझता कि इन, सवालों से आपकी मन्शा क्या है?
इर्फान अली– मेरी मन्शा गवाह की एखलाकी हालत का परदाफाश करना है। इन सवालों से मैं यह साबित कर देना चाहता हूँ कि वह बहुत ऊँचे वसूलों का आदमी नहीं है।
मैजिस्ट्रेट– मैं इन प्रश्नों को दर्ज करने से इन्कार करता हूँ।
इर्फान अली– तो मैं भी जिरह करने से इन्कार करता हूँ।
यह कह कर बारिस्टर साहब इजलास से बाहर निकल आये और ज्वालासिंह से बोले, आपने देखा, यह हजरत कितनी बेजा तरफदारी कर रहें हैं? वल्लाह! मैं डॉक्टर साहब के लत्ते उड़ा देता। यहाँ ऐसी-वैसी जिरह न करते। मैं साफ साबित कर देता कि जो आदमी छोटी-छोटी रकमों पर गिरता है वह ऐसे बड़े मामले में बेलौस नहीं रह सकता। कोई मुजायका नहीं। दीवानी में चलने दीजिए, वहाँ इनकी खबर लूँगा।
इसके एक घंटा पीछे मैजिस्ट्रेट ने फैसला सुना दिया– सब अभियुक्त सेशन सुपुर्द। संध्या हो गयी थी। ये विपत्ति के मारे फिर हवालात चले। सबों के मुख पर उदासी छायी हुई थी, प्रियनाथ के बयान ने उन्हें हताश कर दिया था। वह यह कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि ऐसा उच्च पदाधिकारी प्रलोभनों के फेर में पड़ कर असत्य की ओर जा सकता है। सभी गर्दन झुकाए चले जाते थे। अकेला मनोहर रो रहा था।
इतने में प्रियनाथ की फिटन सड़क से निकली। अभियुक्तों ने उन्हें अवहेलनापूर्ण नेत्रों से देखा। मानों कह रहे थे, ‘आपको हम दीन-दुखियों पर तनिक भी दया न आयी।’ डॉक्टर साहब ने भी उन्हें देखा, आँखों में ग्लानि का भाव झलक रहा था।
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